Uploaded by vikas rathore

Devdas (Hindi)

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शरतच
च ोपा याय
(1876-1938)
देवदास, प रणीता, शेष , च र हीन जैसे अमर उप यास के लेखक शरतच
च ोपा याय का ज म पि म बंगाल म गली िजले के एक छोटे से गाँव म 1876 म आ
था। उनके िपता का कोई आ थक संबल नह था - वह अपना समय अधूरे क से-कहािनयाँ
िलखने म लगाते। िपता क गरीबी के कारण शरतच
कू ल म आगे पढ़ाई न कर सके ।
सािह य के ित लगाव उ ह िवरासत म िमला। छोटी उ म ही वे कहािनयाँ िलखने लगे।
काम क तलाश म वे बमा चले गये जहाँ कई वष तक रहे। 1916 म कलक ा के पास
हावड़ा म आकर बस गये और अपना पूरा समय लेखन म ही देना शु कया और उनक
पहचान एक लेखक के प म होने लगी। उस समय वत ता आ दोलन गित पकड़ रहा
था और बंगाल म कई समाज सुधार अिभयान भी अपनी चरम सीमा पर थे, िजनक झलक
लेखक के उप यास , कहािनय और िनब ध म िमलती है। समाज से जुड़े िजन सरोकार
को शरतच ने अपने लेखन म उजागर कया -उनसे आज भी हम जूझ रहे ह और शायद
इस वजह से उनक कृ ितय का आकषण आज भी बरकरार है।
ISBN : 9788174831767
थम सं करण : 2016 © िश ा भारत
DEVDAS (Novel) by Sharatchandra Chattopadhyay
िश ा भारत
मदरसा रोड, क मीरी गेट- द ी-6
फोन: 011-23869812,23865483, फै स: 011-23867791
िवषय-सूची
पहला प र छेद
दूसरा प र छेद
तीसरा प र छेद
चौथा प र छेद
पाँचवाँ प र छेद
छठा प र छेद
सातवाँ प र छेद
आठवाँ प र छेद
नवाँ प र छेद
दसवाँ-प र छेद
यारहवाँ प र छेद
बारहवाँ प र छेद
तेरहवाँ प र छेद
चौदहवाँ प र छेद
प हवाँ प र छेद
सोलहवाँ प र छेद
पहला प र छे द
वैशाख क एक दोपहरी म जब िचलिचलाती धूप का कोई अ त नह था और गरमी क
कोई हद नह थी, मुकज -कु ल का देवदास ठीक उसी समय पाठशाला के कमरे के कोने म
एक फटी ई चटाई के ऊपर बैठकर लेट हाथ म िलये ए कभी आँख खोलता, कभी मूँदता
और कभी पैर फै ला कर जँभाई ले रहा था। आिखरकार वह गहरी सोच म डू ब गया और
पल भर म ही उसने तय कया क ऐसी परम रमणीय बेला म पाठशाला के अ दर ब द
होकर घुटते रहना कसी काम का नह । इसके बदले तो खुले आसमान के नीचे पतंग उड़ाते
ए चार तरफ घूमने- फरने से बेहतर और या होगा। इस खयाल के आते ही उसके उवर
मि त क म इसका एक उपाय भी सूझा गया। वह हाथ म लेट िलये उठ खड़ा आ।
पाठशाला म उसी समय ट फन क छु ट् टी ई थी। ब का झु ड तरह— तरह क
उछल—कू द और शोर—गुल करता आ पास ही बरगद के पेड़ के नीचे गु ली—डंडा खेल
रहा था। देवदास ने एक बार उस तरफ देखा। उसे ट फन क छु ट् टी नह िमला करती थी,
य क गोिव द पंिडत कई बार देख चुके थे क जब वह पाठशाला के बाहर िनकल जाता
है, तब फर लौट कर आना पस द नह करता। उसके िपता ने भी इस बारे म मना कर रखा
था। अनेक कारण से यही तय आ था क छु ट् टी के समय वह क ा के मु य छा भोलू क
देख—रे ख म रहा करे गा।
इस समय कमरे म के वल पंिडत जी दुपह रया के आल य म आँख ब द कये ए सो
रहे थे और पाठशाला का मु य छा भोलू एक कोने म हाथ—पैर टू टी एक बच पर छोटा
—मोटा पंिडत बना आ बैठा था। बीच—बीच म बड़े अनमनेपन से वह कभी तो लड़क
का खेल देखता था और कभी देवदास और पावती पर अलसायी िनगाह डाल लेता था।
पावती लगभग महीने भर पहले गोिव द पंिडत क देख—रे ख म पढ़ने आई है। पंिडत जी ने
स भवत: इस थोड़े से समय म ही उसका खूब मनोरं जन कया था, इसीिलए वह सोये ए
पंिडत जी का िच खूब मन लगा कर और अ य त धैयपूवक पा —पु तक 'बोधोदय' के
अि तम पृ पर याही से बना रही थी और कसी द िच कार क तरह अनेक कार से
यह देख रही थी क बड़े य से बनाया आ वह िच अपने आदश के साथ कहाँ तक िमल
रहा है। यह बात नह है क िच अपने आदश से कु छ िमल रहा था; ले कन, पावती को
इतने म ही पया आन द और आ मस तोष िमल रहा था।
उसी समय देवदास लेट हाथ म लेकर उठ खड़ा आ और उसने भोलू से ऊँची
आवाज म कहा—''िहसाब नह हो रहा है?”
भोलू ने खूब शा त और ग भीर मुँह बना कर कहा, ''कौनसा िहसाब ?”
“मन-सेर-छटाँक।”
“लाओ, जरा लेट देखूँ।”
भाव यह क उसके सामने इस तरह के काम के िलए लेट के प च
ँ ने-भर क ही देर
होती है। देवदास उसके हाथ म लेट दे कर पास ही खड़ा हो गया। भोलू जोर-जोर से बोल
कर िलखने लगा—'एक मन तेल का दाम चौदह पये नौ आने तीन पाई हो, तो—'
ठीक उसी समय एक घटना हो गई। िजस हाथ-पैर-टू टी बच को पाठशाला का यह
मुख छा अपने पद और मयादा के यो य आसन समझ कर यथािनयम आज तीन बरस
से रोज बैठने के िलए इ तेमाल करता आ रहा है, उसके पीछे ढेर सारे चूने का एक ढेर लगा
आ था। उसे पंिडत जी ने न जाने कब और कस युग म स ते दाम खरीदा था। उनका
इरादा था क जब कभी अ छे दन आयेग,े तब इससे एक कमरा और दलान बनवायगे। यह
तो नह मालूम क वे शुभ दन कब आयगे; ले कन इस सफे द चूने के ित उनक सतकता
और देखभाल म कभी कोई कमी नह होती थी। संसार से अनिभ और प रणाम से
अप रिचत कोई आि त बालक इस चूने का एक कण भी न न करने पाये, इसके िलए
उनके ि य पा तथा अपे ाकृ त वय क भोलानाथ को इस सय -संिचत व तु क
सावधानी से र ा करने का भार िमला था; और वह बच के ऊपर बैठ कर उसक रखवाली
करता था।
भोलानाथ िलखा रहा था—‘एक मन तेल का दाम चौदह पये नौ आने तीन पाई हो
तो, 'अभी वह यह तक प च
ँ ा था क अचानक उसके मुँह से िनकला—अरे बाप रे ! इसके
बाद खूब गुल-गपाड़ा आ और पावती भी जोर-जोर से िच ला कर और तािलयाँ बजाबजा कर जमीन पर लोटने लगी। शोर सुन कर तुर त ही जागे ए गोिव दलाल लाल आँख
कये ए एकदम से उठ कर खड़े हो गये। उ ह ने देखा क पेड़ के नीचे लड़क का दल कतार
बाँध कर खूब ही-ही करता आ दौड़ रहा है। उसी समय उ ह यह भी दखाई दया क टू टी
ई बच के ऊपर एक जोड़ी पैर-नाच-कू द रहे ह और चूने म जैसे वालामुखी पवत फट पड़ा
है। वे िच ला उठे — या आ? या आ? या आ रे ?
वहाँ कहने के िलए के वल पावती ही थी, ले कन वह उस समय जमीन पर लोट रही
थी और तािलयाँ बजा रही थी। पंिडत जी का िवफल
अब ोध के प म कट आ—
या आ? या आ रे ? या आ?
इसके जवाब म ेत मू त भोलानाथ चूना हटा कर खड़ा हो गया। पंिडत जी ने फर
िच ला कर कहा—“बदमाश कह का! तू उसके अ दर था?”
“आँ—आँ—आँ।”
“ फर वही!”
“देवा दु ढके ल कर... आँ —आँ...मन सेर—छटाँक...”
“ फर वही, बदमाश!”
ले कन दूसरे ही ण सारी बात पंिडत जी क समझ म आ ग और उ ह ने चटाई पर
बैठ कर पूछा—“देवा तुझे ध े से िगरा कर भाग गया है?”
भोलू और भी जोर से रोने लगा—“आँ-आँ-आँ...।”
इसके बाद कु छ देर तक चूने क झाड़-प छ ई। ले कन सफे द और काले रं ग म वह
मुख छा ब त कु छ भूत क तरह दखाई देने लगा और उसका रोना भी ब द नह आ।
पंिडत जी ने कहा—“मालूम होता है क देवा तुझे ध ा देकर और िगरा कर भाग
गया है?''
भोलू ने कहा—“आँ-आँ...”
पंिडत जी ने कहा—“इसका बदला लूँगा।”
भोलू ने रोना जारी रखा।
पंिडत जी ने पूछा—“सब लड़के कहाँ ह?”
इसके बाद लड़क का दल लाल मुँह कये और हाँफता आ लौट आया और बोला
—“देवा पकड़ा नह गया। वह ट फक कर मारता है!”
“पकड़ा नह गया?”
एक और लड़का पहली ही बात दोहराने लगा—“वह- ट...”
“चुप रह!”
वह थूक गटक कर एक ओर िखसक गया। िन फल ोध म पंिडत जी ने सबसे पहले
पावती को खूब फटकारा और तब भोलानाथ का हाथ पकड़कर कहा-“चल, जरा कचहरी
म चल कर मािलक से कह आय।”
इसका मतलब यह क ज़म दार नारायण मुकज के पास चल कर उनके पु क इस
करतूत क फ रयाद क जाय।
उस समय तकरीबन तीन बजे थे। नारायण मुकज बाहर बैठ कर ा पी रहे थे और
एक नौकर हाथ म पंखा िलये हवा कर रहा था। छा सिहत पंिडत जी के इस असमय
आगमन से उ ह ने कु छ िवि मत हो कर कहा“अरे यह तो गोिव द पंिडत ह!”
ले कन गोिव द जाित के काय थ थे, इसिलए उ ह ने पहले तो भूिम हो कर णाम
कया और फर भोलू को दखला कर िव तारपूवक सब बात कह सुनाई। मुकज महाशय
ब त ही नाराज़ ए, बोले“यही तो म देखता ँ क देवदास हाथ से बाहर आ जा रहा
है।”
“अब आप ही म द क म या क ँ ?”
ज़म दार साहब ने े क िनगाली रख कर कहा“कहाँ गया है वह?”
“म या जानूँ! जो लड़के पकड़ने गये थे, उ ह ट मार-मार कर भगा दया है।”
दोन ही आदमी कु छ देर तक चुप रहे। फर नारायण बाबू ने कहा“अ छा, घर आने
दो, तब जो कु छ होगा क ँ गा।”
गोिव द अपने िव ाथ का हाथ पकड़ कर जब लौट कर पाठशाला म प च
ँ े तब
उ ह ने अपने चेहरे और आँख क भाव-भंिगमा से सारी पाठशाला को सं त कर डाला
और ित ा क क य िप देवदास के िपता यहाँ के जम दार ह, ले कन फर भी म उसे
पाठशाला म नह घुसने दूग
ँ ा। उस दन पाठशाला क छु ट् टी कु छ पहले ही हो गयी। चलते
समय बालक आपस म तरह-तरह क बात करने लगे।
एक लड़के ने कहा“ओफ् ! देवा कतना मजबूत है!”
दूसरे लड़के ने कहा“भोलू को खूब छकाया।”
“ओफ! कै सा ढेला फकता है!”
एक और लड़के ने भोलू का प लेकर कहा“देख लेना, भोलू भी इसका बदला लेगा!”
“ ।ँ वह तो अब पाठशाला म आयेगा नह जो उससे कोई बदला ले!”
इस छोटे-से दल के साथ एक ओर पावती भी लेट और कताब हाथ म िलये ए घर
लौट रही थी। उसने पास के एक लड़के का हाथ पकड़ कर पूछा“मिण, या वे अब देव दा
को सचमुच पाठशाला म न आने दगे?”
मिण ने कहा“नह , कसी तरह नह ।”
पावती िखसक गयी। यह बात उसे िब कु ल अ छी नह लगी। पावती के िपता का
नाम था नीलकं ठ च वत । च वत महाशय ज़म दार साहब के पड़ोसी थे। अथात् मुकज
महाशय का जो ब त बड़ा मकान था, उसी के पास च वत महाशय का भी छोटा-सा
पुराने ढंग का मकान था। उनके पास दस-पाँच बीघे ज़मीन-जायदाद थी और दो-चार घर
यजमान भी थे। जम दार साहब के घर से भी उ ह कु छ िमल जाता था। उनका प रवार
अ छी तरह से रहता था और उनके दन मज़े म कटते थे।
पहले धमदास के साथ पावती क भट ई। वह देवदास के यहाँ का नौकर था। जब
देव एक बरस क उ का था तब से ले कर आज बारह बरस क उ तक वह देवदास के ही
साथ है। वही उसे पाठशाला म प च
ँ ा जाता है और फर छु ट् टी के समय आ कर घर ले
जाया करता है। यह काम उसने िनयमपूवक कया है और आज भी वह इसी काम के िलए
पाठशाला क ओर जा रहा था। पावती को देख कर उसने पूछा“ य पारो, तु हारे देव दा
कहाँ ह?”
“भाग गये ह।”
धमदास ने ब त ही च कत होकर पूछा“भाग गये? या मतलब?” उस समय पावती
भोलानाथ क दुदशा क बात करके फर नये िसरे से हँसन लगी“देखो धमदास, देव दाही
ही ही! एक दम चूने के ढेर परहीहीही! होहोहो एकदम से उसे िचत पटक कर...”
य िप धमदास ने सारी बात अ छी तरह नह समझ , ले कन फर भी पारो को
हँसते देख कर वह भी हँस पड़ा। फर हँसी रोक कर कु छ आ हपूवक पूछा“बताओ पारो,
या आ?”
“देव दा ने भोलू को ध ा दे कर िगरा दया चूने के ढेर परहीहीही!”
अब धमदास ने बाक बात भी समझ ली और ब त ही िचि तत होकर पूछा “ य
पारो, जानती हो क इस समय वह कहाँ है?”
“म या जानूँ!”
“नह , तुम जानती हो। बतला दो। जान पड़ता है क उसे ब त भूख लगी होगी।”
“हाँ, भूख तो खूब लगी होगी। ले कन म बतलाऊँगी नह ।”
“बतलाओगी य नह ?”
“बतला दूग
ँ ी तो वे मुझे ब त मारगे। म जा कर उ ह खाना दे आऊँगी।”
धमदास कु छ स तु आ। बोला“अ छा, दे आना और स या से पहले ही उसे बात
म भुला कर घर ले आना।”
“अ छा ले आऊँगी।”
घर प च
ँ कर पावती ने देखा क उसक माँ ने और देवदास क माँ ने भी सब बात
सुन ली ह। उससे भी पूछा गया। हँस कर और ग भीर हो कर जो कु छ उससे बना, उसने
कह सुनाया, इसके बाद उसने अपने आँचल म थोड़ी-सी मूड़ी बाँधी और जम दार के एक
आम के बाग म वेश कया। वह बाग उन लोग के मकान के पास ही था और उसी के एक
ओर बाँस का झुरमुट था। वह जानती थी क िछप कर तमाखू पीने के िलए देवदास ने इसी
झुरमुट के भीतर थोड़ी-सी जगह साफ कर रखी है। जब वह भाग कर कह िछपना चाहता
था तब इसी गु थान म चला आता था। भीतर प च
ँ कर पावती ने देखा क बाँस के
झुरमुट के बीच म देवदास हाथ म एक छोटा ा िलये ए बैठा है और सयान क तरह
त बाकू पी रहा है। उसका चेहरा ब त ग भीर है और उस पर िच ता- फ़ छायी ई थी।
पावती को देख कर वह ब त खुश आ, ले कन खुशी उसने जािहर नह होने दी। तमाखू
पीते ए उसने ग भीर भाव से कहा“आओ पावती, बैठो।”
पावती पास आ कर बैठ गई। उसने अपने आँचल म जो कु छ बाँध रखा था, उस पर
तुर त ही देवदास क दृि पड़ गई। उसने िबना कु छ पूछे ही आँचल खोल िलया और मूड़ी
खाना शु करके कहा“ य पारो, पंिडत जी या कहते थे?”
“उ ह ने सब बात जा कर ताऊ जी से कह दी ह।”
देवदास ने ा जमीन पर रख कर आँख फाड़ कर पूछा“बाबू जी से सब बात कह
द ?”
“हाँ।”
“ फर या आ?”
“अब वे तु ह पाठशाला म नह आने दगे।”
“म पढ़ना ही नह चाहता।”
इस बीच वह मूड़ी को खा कर समा कर चुका था। उसने पावती क ओर देख कर
कहा“लाओ, स देश दो।”
“स देश तो म नह लाई।”
“अ छा तो लाओ, पानी दो।”
“पानी यहाँ कहाँ िमलेगा?”
देवदास ने कु छ िबगड़ कर कहा“अगर कु छ भी नह लाना था तो फर
आयी य ? जाओ, पानी ले आओ।”
उसका वह वर पावती को अ छा नह लगा। उसने कहा“अब म नह जा सकती।
चलो, तु ह चल कर पी लो।”
“भला अभी या म जा सकता ?ँ ”
“तो या यह रहोगे?”
“अभी तो यह र ग
ँ ा, फर कह चला जाऊँगा।”
पावती का मन दुखी हो गया। देवदास क परे शानी देख कर और बात सुन कर उसक
आँख म जल भर आ रहा था। उसने कहा—“देव दा, म भी चलूँगी।”
“कहाँ? मेरे साथ? दुत!् ऐसा कह होता है!”
पावती ने िसर िहला कर कहा—“म तो चलूँगी ही।”
“नह , तु हारे जाने क ज रत नह । जाओ, पहले पानी ले आओ।”
“पावती ने फर िसर िहला कर कहा—''म तो चलूँगी।”
“जाओ, पहले पानी ले आओ।”
“नह , म नह जाऊँगी। तुम पीछे से भाग जाओगे।”
“नह , म नह भागूँगा।”
ले कन पावती उसक इस बात पर िव ास नह कर सक , इसिलए वह बैठी रही।
देवदास ने फर म दया—“जाओ, कह रहा ँ न।”
पावती चुप रही। इसके बाद उसक पीठ पर एक घूँसा पड़ा—“जायेगी नह ?”
पावती रो पड़ी। उसने कहा—“म कसी तरह नह जाऊँगी।”
देवदास एक तरफ चला गया। पावती भी वहाँ से रोती ई उठ कर चल पड़ी और
देवदास के िपता के पास प च
ँ ी। मुकज महाशय पावती को ब त चाहते थे। बोले—“ य
बेटी पारो, तुम रो य रही हो?”
“देव दा ने मुझे मारा है।”
“कहाँ है वह?”
“वह बगीचे म बाँस क झाड़ी म बैठे ए तमाखू पी रहे थे।”
एक तो पंिडत जी के आने से वे य ही िचढ़े बैठे थे, ितस पर इस समाचार ने उ ह
िबकु ल आग−बबूला कर दया। उ ह ने पूछा—“देवा शायद फर तमाखू पीने लगा है?”
“हाँ, पीते ह, रोज पीते ह। बाँस के झुरमुट म उनका ा िछपाया आ है।”
“तो फर इतने दन से य नह कहा?”
“म डरती थी क देव दा मुझे मारगे।”
ले कन असल म बात यह न थी। उसे डर था क अगर यह बात कह दूग
ँ ी तो देवदास
को सजा भुगतनी पड़ेगी; और इसिलए उसने पहले कोई बात नह कही थी। ले कन आज
गु से म आ कर यह बात कह डाली। अभी उसक उमर िसफ आठ बरस क थी। अभी उसे
गु सा ब त था, ले कन फर अभी उसम समझ−बूझ कम न थी। वह घर जा कर िबछौने
पर पड़ गयी और रोती-रोती सो गई। उस रात को उसने खाना भी नह खाया।
दूसरा प र छे द
दूसरे दन देवदास पर खूब मार पड़ी। दन−भर उसे घर म ब द करके रख दया गया।
इसके बाद जब उसक माँ ब त रोने−धोने लगी, तब कह जा कर देवदास छोड़ा गया।
दूसरे दन सबेरे ही वह घर से भागा—भागा आया और पावती के मकान क िखड़क के
पास खड़ा हो गया। उसने पुकारा—“पारो, ओ पारो।”
पावती ने िखड़क खोल कर कहा—“देव दा।”
देवदास ने इशारा करके कहा—“ज दी आ।”
जब दोन इकट् ठा ए, तब देवदास ने पूछा—“तूने तमाखू पीने क बात य कह
दी?”
“तुमने मुझे मारा य ?”
“तू पानी लाने य नह गई?”
पावती चुप रही। देवदास ने कहा—“तू ब त बेवकू फ है। अ छा देख, फर कभी मत
कहना।”
पावती ने िसर िहला कर कहा—“अ छा, नह क ग
ँ ी।”
“अ छा चल, बाँस−बाड़ी म से बाँस काट लाय। आज ताल पर चल कर मछली
पकड़गे।”
बँसवाड़ी के पास ही नोना का एक पेड़ था। देवदास उसी पर चढ़ गया। ब त
क ठनाई से उसने एक बाँस का िसरा ख च कर उसे नीचे झुकाया और पावती को उसे
पकड़ने के िलए देते ए कहा—“देख, इसे छोड़ मत देना, नह तो म िगर पड़ूग
ँ ा।”
पावती अपनी सारी शि लगा कर उसे नीचे क ओर ख चे रही। देवदास उसे पकड़
कर और नोना क एक डाल पर पैर रख कर उसम से बंसी काटने लगा। पावती ने नीचे से
कहा—“देव भइया, तुम पाठशाला नह चलोगे?”
“नह ।”
“ताऊ जी तु ह भेज दगे।”
“बाबू जी ने खुद ही कह दया है, अब म वहाँ नह पढू ँगा। पंिडत जी घर पर ही
आयगे।”
पावती कु छ िचि तत ई। कु छ देर बाद बोली—“गरमी के कारण कल से हम लोग
क पाठशाला सबेरे क हो गई है। अब म जाऊँगी।”
देवदास ने ऊपर से आँख तरे र कहा—“नह , जाना नह होगा।”
उस समय पावती कु छ अ यमन क-सी हो गई थी। इस बीच म बाँस क डाली कु छ
ऊपर उठ गई और साथ ही देवदास भी नोना क डाल से नीचे आ पड़ा। डाल कु छ यादा
ऊँची नह थी, इसिलए कु छ यादा चोट नह आई; ले कन फर भी शरीर कई जगह से
िछल गया। नीचे आते ही ु देवदास ने एक सूखी डाल उठा कर पावती क पीठ पर,
गाल पर और जहाँ जी म आया, वहाँ जोर-जोर से कई हाथ जमा कर कहा—“जा, दूर हो
यहाँ से!”
पहले तो पावती खुद ही लि त हो गई थी, ले कन जब उस पर लगातार छड़ी-परछड़ी पड़ने लगी तब उसने मारे ोध और अिभमान के अपनी दोन आँख अंगार क तरह
लाल करके रोते ए कहा—“म अभी ताऊ जी के पास जाती ।ँ ” देवदास ने ोध म आ कर
एक और हाथ जमाते ए कहा—“जा, अभी जा कर सब कह दे। मुझे परवाह नह है।”
पावती चली गई। कु छ दूर बढ़ जाने पर देवदास ने पुकारा—“पारो!”
पावती ने सुन कर भी नह सुना और वह ज दी-ज दी आगे बढ़ने लगी। देवदास ने
फर पुकारा—“ओ पारो, जरा सुन जा।”
पावती ने कोई उ र नह दया। देवदास ने नाराज होकर कु छ तो ऊँचे वर से और
कु छ मन-ही-मन कहा—“जा, मर जा!”
पावती चली गई। देवदास ने य - य करके एक-दो बंिसयाँ काट ल । उसका मन
िख हो गया था। पावती रोती-रोती घर लौट गई। उसके गाल पर छड़ी का जो दाग पड़ा
था, वह नीला होकर फू ल उठा था। उस पर पहले दादी क िनगाह पड़ी। उसने िच ला कर
कहा—“बाप रे , पारो, कसने तुझे इस तरह मारा?”
आँख प छते ए पावती ने कहा—“पंिडत जी ने।”
दादी ने उसे गोद म ले कर ब त ही गु से म कहा—“चल तो जरा, नारायण के पास
चल। देखूँ तो सही वह कै सा पंिडत है! हाय हाय! लड़क को मार ही डाला था!”
पावती ने दादी के गले से िलपट कर कहा—“चलो।”
मुकज महाशय के पास प च
ँ कर दादी ने पंिडत जी के अनेक पुरख का उ लेख
करके उ ह भरपूर कोसा और अ त म खुद गोिव द को भी ढेर गािलयाँ दे कर कहा
—“नारायण, जरा देखो तो उसक िह मत! शू हो कर ा ण क लड़क पर हाथ
चलाता है! जरा देखो तो उसने कै सा मारा है!”
इतना कह कर वृ ा पावती के गाल पर पड़ा नीला दाग ब त ही वेदना के साथ
दखलाने लगी।
नारायण बाबू ने पावती से पूछा—“पारो, कसने मारा है?”
पावती चुप रही। उस समय दादी ही फर िच ला कर बोली—“और कौन मारे गा?
उसी गँवार पंिडत ने मारा है।”
“ य मारा है?”
पावती ने फर भी कोई उ र नह दया। मुकज ने समझा क इसने ज र कोई
अपराध कया है, इसीिलए मार खाई है। ले कन इस तरह मारना उिचत नह आ। यही
बात उ ह ने कट प म भी कही। तब पावती ने अपनी पीठ भी खोलकर दखलाई और
कहा—“यहाँ भी मारा है।”
पीठ के दाग और भी प , और भी बड़े थे। इसिलए दोन ही ब त ु हो गये।
मुकज महाशय ने यह राय भी जािहर क क पंिडत जी को यहाँ बुला कर उनसे कै फयत
तलब क जानी चािहए। यह भी ि थर आ क ऐसे पंिडत के पास लड़ कय को भेजना
ठीक नह ।
यह राय सुन कर पावती ब त स ई और अपनी दादी क गोद म चढ़कर घर
लौट आई। घर प च
ँ कर पावती अपनी माँ क िजरह के फे र म पड़ी। वे उसे ले बैठी
—“ य मारा है?”
पावती ने कहा—“य ही झूठमूठ मारा है।”
माता ने अ छी तरह लड़क के कान मल कर कहा—“य ही झूठमूठ भी कभी कोई
मारता है?”
उसी समय उनक सास दालान म से हो कर जा रही थ । उ ह ने कमरे क चौखट के
पास आ कर कहा“ य ब , माँ होकर तुम तो इसे झूठमूठ मार सकती हो और वह मुँहजला नह मार सकता?”
ब ने कहा—“उसने झूठमूठ और अकारण कभी नह मारा है। यह बड़ी सीधी है न!
इसने ज र कु छ कया है, तभी मार खाई है।”
सास ने िवर होकर कहा—“अ छा मान िलया, यह सही। ले कन अब म इसे
पाठशाला नह जाने दूग
ँ ी।”
“कु छ िलखना-पढ़ना नह सीखेगी?”
“िलखना-पढ़ना सीख कर या होगा? एकाध िचट् ठी-प ी िलखना आ जाय, दो-चार
पंि याँ रामायण-महाभारत पढ़ने लग जाय, बस, यही ब त है। तु हारी पारो या जजी
करे गी या वक ल बनेगी?”
ब लाचार हो कर चुप हो रही।
उस दन शाम को देवदास ने ब त ही डरते-डरते घर म वेश कया। उसे जरा भी स देह
नह था क इस बीच पावती ने घर प च
ँ ने पर सारा हाल कह दया होगा। ले कन जब उसे
अपने अनुमान के स य होने का कह कु छ भी आभास नह िमला, बि क उलटे उसने अपनी
माँ के मुँह से सुना क आज गोिव द पंिडत ने पावती को ब त बुरी तरह से मारा है और
इसिलए अब वह पाठशाला नह जायेगी, तब उसे इतना अिधक आन द आ क उससे
अ छी तरह भोजन भी नह कया गया। जैसे-तैसे ज दी-ज दी कु छ खा-पी कर वह पावती
के पास प च
ँ ा और हाँफतेहाँफते बोला—“तू अब पाठशाला नह जायेगी?”
“नह ।”
“यह कै से आ?”
“मने कह दया क पंिडत जी ने मारा है।”
देवदास खूब हँसा और उसक पीठ ठ क कर उसने अपनी यह राय जािहर क क
उसके समान बुि मती इस पृ वी पर और कोई नह है। इसके बाद उसने धीरे -धीरे पावती
के गाल पर पड़े नीले दाग को ब त यानपूवक देख कर ठं डी साँस लेते ए कहा—“हाय
हाय!”
पावती ने कु छ हँस कर और देवदास के मुँह क ओर देख कर पूछा—“ या आ?”
“ य पारो, तुझे ब त चोट लगी है न?”
पावती ने िसर िहला कर कहा—“ ।ँ ”
“अहा, तू य ऐसी हरकत करती है! इसी से तो मुझे गु सा आ जाता है। तभी तो
मार बैठता ।ँ ”
पावती क आँख म जल भर आया। उसने सोचा पूछूँ क या क ँ ; ले कन वह पूछ
नह सक ।
देवदास ने उसके िसर पर हाथ रख कर कहा—“देखो, अब ऐसा न करना। अ छा।”
पावती ने िसर िहला कर कहा—“नह क ँ गी।”
देवदास ने फर एक बार उसक पीठ ठ क कर कहा—“अ छा, अब म तुझे कभी न
मा ँ गा।”
तीसरा प र छे द
दन पर दन बीतते चले जाते थे, इन दोन बालक-बािलका के आमोद क सीमा नह थी।
दन भर धूप म घूमते- फरते, स या को घर लौट कर मार खाते। दूसरे दन सबेरा होते ही
भाग जाते और स या को फर डाँट-फटकार और िपटाई का साद पाते। रात को िनि त
िन ग
े सो जाते और फर सबेरा होता और तब घर से भाग कर खेलते- फरते। उनका और
कोई संगी-साथी नह था और न उसक कोई ज रत ही थी। गाँव-भर म उप व करते
फरने के िलए दोन ही काफ थे। उस दन सूय दय होने के कु छ ही देर बाद दोन ताल पर
जा प च
ँ े थे। दोपहर को लाल-लाल आँख करके , सारा जल गँदला करके , प ह मछिलयाँ
पकड़ कर और यो यता के अनुसार आपस म बँटवारा करके दोन अपने-अपने घर लौट
आये। पावती क माँ ने अपनी लड़क को बाकायदा ठ क-पीट कर घर म ब द कर दया।
ले कन यह नह मालूम क देवदास का या हाल आ, य क इस तरह क बात वह कभी
कसी तरह जािहर नह होने देता था । ले कन हाँ, जब पावती कमरे के अ दर बैठी ई खूब
रो रही थी, तब देवदास ने दोपहर को दो-ढाई बजे के करीब एक बार उसक िखड़क के
नीचे आ कर ब त ही कोमल वर से पुकारा था “पारो, ओ पारो!” जान पड़ता है क
पावती ने उसक आवाज सुन ली थी, ले कन ठ कर उ र नह दया था। इसके बाद उसने
वह बाक सारा दन च पे के एक पेड़ पर बैठ कर ही िबता दया और स या के बाद ब त
य करके ही धमदास उसे उस पेड़ से नीचे उतार कर घर ले जा सका।
ले कन यह बात के वल उसी दन ई। दूसरे दन पावती सबेरे से ही उ सुकता से देव दा क
ती ा करती रही। ले कन देवदास नह आया। वह अपने िपता के साथ पास के गाँव म
एक िनम ण म चला गया था। जब देवदास नह आया तब पावती उदास मन से अके ली
ही घर से बाहर िनकल पड़ी। कल तालाब म घुसते समय देवदास ने पावती को तीन पये
रखने के िलए दये थे, इस डर से क कह खो न जाय। उसके आँचल म वही तीन पये बँधे
ए थे। उसने आँिचल घुमाते ए और खुद भी घूमते ए ब त-सा समय अके ले ही िबता
दया। संगी-साथी कोई िमला नह , य क उन दन सबेरे के समय ही पाठशाला खुलती
थी। अब पावती दूसरे मुह ले क ओर चली। वह मनोरमा का मकान था। मनोरमा भी
पाठशाला म पढ़ती थी। वह उमर म कु छ बड़ी थी, ले कन पावती क सहेली थी। इधर कई
दन से उससे भट नह ई थी। आज समय पा कर पावती उसके मुह ले म गयी और उसने
पुकारा “मनो, घर म हो?”
मनोरमा क मौसी बाहर िनकल आयी।
“पारी?”
“हाँ मौसी, मनोरमा कहाँ है?”
“वह तो पाठशाला गई है। तुम नह गय ?”
“म पाठशाला नह जाती। देव दा भी नह जाते।”
मनोरमा क मौसी ने हँसते ए कहा“तब तो ब त अ छी बात है। तुम भी नह जात
और देव दा भी नह जाते?”
“नह , हम लोग म से कोई नह जाता।”
“अ छी बात है। ले कन मनोरमा पाठशाला गई है।”
मौसी ने उससे बैठने के िलए कहा, ले कन वह लौट आई। रा ते म उसने देखा क
रिसक पाल क दुकान के पास तीन वै णवी ि याँ माथे पर ितलक लगाये और हाथ म
खँजड़ी िलये िभ ा माँगने चली जा रही ह। पुकार कर कहा“वै णवी, तुम गाना जानती
हो?”
उनम से एक ने उलट कर देखते ए कहा“जानती य नह बेटी।”
“तब गाओ न।”
इस पर वे तीन घूम कर खड़ी हो गई। उनम से एक ने कहा“बेटी, गाना या य ही
होता है, िभ ा देनी होती है। तु हारे घर पर चल कर गायगी।”
“नह , यह गाओ।”
“पैसे देने ह गे बेटी।”
पावती के आँचल म पये बँधे ए देख कर वे दुकान से कु छ दूर जा कर बैठ गई।
इसके बाद खँजड़ी बजा कर और सुर िमला कर तीन गाने लग । पावती क समझ म कु छ
भी नह आया क या गाना था और उसका अथ या था। अगर वह जानना चाहती तो भी
शायद न जान सकती, य क उसका मन उसी समय देव दा के पास दौड़ गया था।
गाना समा करके उ ह ने कहा“लाओ बेटी, दो, या िभ ा देती हो।” पावती ने
आँचल क गाँठ खोल कर तीन पये उनके हाथ म दे दये। तीन वै णिवयाँ अवाक् हो कर
कु छ देर तक उसके मुँह क ओर देखती रह ।
उनम से एक ने पूछा“बेटी, ये कसके पये ह?”
“देव दा के ।”
“वे तु ह मारगे नह ?”
पावती ने कु छ सोच कर कहा“नह ।”
उनम से एक ने कहा“जीती रहो बेटी!”
पावती ने हँस कर कहा“तुम तीन को ठीक-ठीक िह सा िमल गया न?”
तीन ने िसर िहला कर कहा“हाँ, िमल गया। राधा रानी तु हारा भला कर।”
यह कह कर उन तीन ने दय से उसे आशीवाद दया क इस दानशील छोटी लड़क
को कोई सजा न िमले। पावती उस दन ज दी ही घर लौट आई। दूसरे दन सबेरे ही
देवदास के साथ उसक भट ई। उसके हाथ म एक लटाई तो थी, ले कन पतंग नह थी।
पतंग उसे खरीदनी थी। पावती को अपने पास देख कर उसने कहा“पारो, लाओ वे पये
दो।”
पावती का मुँह सूख गया“ पये तो नह ह।”
“ या ए?”
“वै णिवय को दे दये। उ ह ने गाना गाया था।”
“सब पये दे दये?”
“हाँ सब। तीन ही तो पये थे।”
“दुत गधी, या सब पये दे देने होते ह?”
“वाह, तीन वै णिवयाँ जो थ ! अगर तीन पये न देती तो उन तीन का िह सा कस
तरह लगता?”
देवदास ने ग भीर हो कर कहा“अगर म होता तो दो ही पये देता।”
यह कह कर देवदास ने लटाई क ड डी क नोक से जमीन पर कु छ अंक के िच ह
बनाते ए कहा“उस हालत म उन तीन म हर एक को दस आना आठ पाई िह सा
िमलता।”
पावती ने कहा“वे लोग तु हारी तरह िहसाब लगाना जानती ह?”
देवदास ने ैरािशक तक िहसाब सीखा था। पावती क बात से स हो कर
कहा“हाँ ठीक है, वे नह जानती ह गी।”
पावती ने देवदास का हाथ पकड़ कर कहा“देव दा, मने समझा था क तुम मुझे
मारोगे।”
देवदास ने च कत होकर पूछा“मारता य ?”
“वै णिवय ने कहा था क तुम मुझे मारोगे।”
यह सुन कर देवदास ने ब त स हो कर पावती के क धे पर बाँह रखते ए कहा“दुत,
िबना कोई कसूर कये म मारता ?ँ ”
जान पड़ता है क देवदास ने समझा था क पावती का यह काम उसके कानून के
अ दर नह आता, य क तीन पये उन तीन वै णिवय म ठीक तरह बँट गये थे। खास
तौर पर िजन वै णिवय ने पाठशाला म यहाँ तक का िहसाब नह सीखा था, उ ह अगर
तीन पये के बदले िसफ दो ही पये दये जाते तो वह उनके ित मानो एक तरह का
अ याचार होता। उसके बाद वह पावती का हाथ पकड़ कर पतंग खरीदने के िलए छोटे
बाजार क तरफ चल पड़ा। चलते समय लटाई उसने वह एक झाड़ी म िछपा दी।
चौथा प र छे द
इस तरह करते-करते एक बरस तो बीत गया, ले कन अब और बीतता नजर नह आ रहा
था। देवदास क माँ ब त आफत मचाने लग । उ ह ने पित को बुला कर कहा“देवदास
िब कु ल मूख हरवाहा हो गया है। चाहे जो हो, इसका कु छनकु छ उपाय करो।”
नारायण मुखज ने सोच कर कहा “वह कलक े चला जाय तो ठीक होगा, वहाँ
नगे के साथ रह कर अ छी तरह िलख-पढ़ सके गा।”
नगे बाबू र ते म देवदास के मामा होते थे। यह बात सभी लोग ने सुनी। पावती
सुन कर ब त ही भयभीत ई। देवदास को अके ला पा कर वह उसका हाथ पकड़ कर झूलते
ए बोली “देव दा, मने सुना है क तुम कलक े जाओगे।”
“ कसने कहा?”
“ताऊ जी ने कहा।”
“दुत, म हरिगज नह जाऊँगा।”
“और अगर वे लोग जबरद ती भेज द तो?”
“जबरद ती?”
इस समय देवदास ने ऐसा मुँह बनाया िजससे पावती ने अ छी तरह समझ
िलया क इस पृ वी पर ऐसा कोई नह है जो उससे कोई काम जोर-जबरद ती से
करा सके । वह भी यही चाहती थी। इसिलए ब त खुश ई और एक बार उसका हाथ पकड़
कर और उस पर इधर-उधर झूल कर देवदास के मुँह क ओर देख कर हँसती ई
बोली“देखो, देव दा जाना नह ।”
“कभी नह ।”
ले कन देवदास क यह ित ा कायम न रह सक । उसके िपता ने उस पर ब त बकझक कर, यहाँ तक क डाँट-फटकार और िपटाई करके भी, धमदास के साथ उसे कलक े
भेज दया। जाने के दन देवदास को मन म ब त तकलीफ ई। नये थान म जाने के
िवचार से उसे कु छ भी कु तूहल या आन द नह आ। पावती उस दन उसे कसी तरह
छोड़ना ही नह चाहती थी। वह ब त रोयी-धोयी, ले कन उसक बात कौन सुनता? पहले
तो उसने ठ कर कु छ देर देवदास के साथ बात ही नह क , ले कन अ त म देवदास ने जब
उससे कहा“पारो, म ज दी ही लौट आऊँगा; अगर न भेजगे, तो भाग आऊँगा,” तब पावती
का मन कु छ ठकाने लगा और उसने अपने छोटे-से दल क ब त-सी बात कह सुनाय ।
इसके बाद घोड़ेगाड़ी पर सवार हो कर अपना सामान ले कर देवदासने अपनी माता के
आशीवाद और उनके ने के जल का अि तम िब दु अपने म तक पर ितलक के प म
धारण कया और चला गया।
उस समय पावती को न जाने कतना स ताप हो रहा था। उसक आँख से आँसु क
झड़ी लगी ई थी, दुख से उसक छाती फटी जा रही थी। पहलेपहल उसके कई दन इसी
तरह बीते। इसके बाद एक दन अचानक उसने सुबहसवेरे उठ कर देखा क आज दन-भर
करने के िलए मेरे पास कोई काम ही नह है। जब से उसने पाठशाला छोड़ी थी तब से अब
तक सबेरे से स या तक का सारा समय िसफ उ पात और खेल-कू द म ही बीत जाता था।
वह समझती थी क न जाने मुझे कतने काम करने ह और उन सब काम के िलए समय ही
पूरा नह पड़ता। ले कन अब अ सर ऐसा होने लगा क उसे ढू ँढने पर भी कोई काम नह
िमलता। कसी दन सबेरे उठा कर िचट् ठी िलखने बैठ जाती। इसी म दस बज जाते और
उसक माँ नाराज होने लगती। पर दादी कहत अरे , उसे िलखने दो न, सबेरे उठ कर इधरउधर दौड़ते फरने से तो कु छ िलखना-पढ़ना अ छा है।
िजस दन देवदास का प आता, वह पावती के िलए ब त ही सुख का दन होता था।
सीढ़ी वाले दरवाजे क चौखट पर बैठ कर और हाथ म प ले कर दन भर वही पड़ा करती
थी। इसी तरह लगभग दो महीने बीत गये। अब न तो उधर से उतनी ज दी-ज दी प
आता और न इधर से ही िलखा जाता। उ साह मानो धीरे -धीरे कु छ कम होता जा रहा था।
एक दन सबेरे के समय पावती ने अपनी माता से कहा“माँ, म अब फर
पाठशाला जाया क ँ गी।”
“ य ?”
माँ को इस बात पर कु छ आ य आ। पावती ने िसर िहला कर“म ज र जाऊँगी।”
“अ छा जाइयो। भला, बेटी, मने तुझे कभी पाठशाला जाने से मना कया है?”
उस दन दोपहर को पावती ब त दन क छोड़ी ई लेट और कताब ढू ँढ कर और
दासी का हाथ पकड़ कर फर अपने उसी पुराने थान पर शा त धीर भाव से जा बैठी।
दासी ने कहा—“गु जी, अब पावती को मारना-पीटना मत, अपनी ही इ छा से
पढ़ने आई है। जब इसक इ छा होगी तब यह पढ़ेगी और जब इ छा नह होगी तब घर
चली जायेगी।”
पंिडत जी ने मन-ही-मन कहा—तथा तु, और ऊपर से कहा—“अ छा, ऐसा ही
होगा।”
एक बार उनक यह पूछने क इ छा ई क पावती को भी य नह कलक े भेज
दया गया? ले कन पूछा नह ।
पावती ने देखा क ठीक पहले वाले थान पर मुख छा भोलू उसी बच पर बैठा
आ है। उसे देख कर पहले एक बार पावती को कु छ हंसी-सी आई। ले कन इसके बाद
उसक आँख सजल हो गय । उसे यह यान आया क बस इसी दु ने देवदास को घर से
बाहर िनकलवाया है।
इस तरह ब त दन बीत गये। फर काफ समय बाद एक दन देवदास लौट कर घर
आया। पावती दौड़ी ई उसके पास प च
ँ ी। ब त-सी बात ई। कोई ऐसी ब त यादा बात
नह थ जो पावती कहती और अगर ऐसी कु छ बात रही भी ह तो वह कह नह सक ।
ले कन देवदास ने ब त-सी बात कह । वे सभी यादातर कलकते क थ । इसके बाद एक
दन गरिमय क छु ट् टी खतम हो गई। देवदास फर कलक े चला गया। इस बार भी
रोना-धोना आ, ले कन उसम पहली बार क -सी ग भीरता नह थी। देखते-देखते चार
बरस बीत गये। इन कु छ वष म देवदास के वभाव म इतना अिधक प रवतन हो गया था
क उसे देख कर पावती ने कई बार चुपचाप एका त म रो कर अपनी आँख प छ ली थ ।
इससे पहले देवदास म गँवारपन के जो-जो दोष थे, नगर म िनवास करने के कारण वे सब
अब नाम को भी नह रह गये थे। अब तो िवलायती जूता, ब ढ़या कोट-कमीज, ब ढ़या
धोती, छड़ी, सोने क घड़ी, चेन और बटन आ द सब चीज के न रहने पर उसे ल ा होती
थी। अब गाँव क नदी के कनारे टहलने को उसका जी नह चाहता था, बि क उसके बदले
अब उसे हाथ म ब दूक ले कर िशकार के िलए िनकल जाने म ही आन द आता था। अब
छोटी-छोटी मछिलय के बदले बड़े म छ फँ साने क इ छा होती थी। इतना यही य ,
समाज क चचा, राजनीित क चचा, सभा-सिमित, के ट और फु टबाल क चचा-समी ा
ही उसे अ छी लगती थी। हाय रे , अब कहाँ वह पावती और कहाँ उन लोग का वह ताल
सोनापुर गाँव! ऐसा नह था क बचपन क याद से जुड़ी जो एक-दो सुख क बात थ , वे
याद न आती ह , ले कन दूसरी ओर ब त-सी बात के ित उ साह होने के कारण अब वे
अिधक समय तक मन म नह ठहरती थ । फर भी गरिमय क छु ट् टी आई । िपछले साल
गरिमय क छु ट् टी म देवदास घूमने के िलए िवदेश चला गया था, घर नह आया था, इस
बार उसक माता और िपता दोन ने ही ब त आ हपूवक उसे प िलखा था; इसिलए
इ छा न होने पर भी देवदास अपना बो रया-िब तर बाँध कर ताल सोनापुर गाँव आने के
िलए हावड़ा टेशन पर आ प च
ँ ा, िजस दन घर प च
ँ ा, उस दन उसका शरीर कु छ ठीक
नह था, इसिलए वह घर से बाहर नह िनकल सका। दूसरे दन उसने पावती के घर प च
ँ
कर पुकारा—“चाची।”
पावती क माँ ने उसे ब त आदरपूवक बुलाते ए कहा—“आओ बेटा, बैठो।” चाची
के साथ थोड़ी देर तक बातचीत करने के बाद देवदास ने पूछा—“चाची, पावती कहाँ है?”
“ऊपर वाली कोठरी म होगी।”
देवदास ने ऊपर प च
ँ कर देखा क पावती स या-दीप जला रही है। पुकारा
—“पावती!”
पहले तो पावती च क उठी, पर फर णाम करके कु छ अलग िखसक कर खड़ी हो
गई।
“ या हो रहा है पावती?”
इस बात का उ र देने क कोई आव यकता नह थी, इसिलए पावती चुप रही।
इसके बाद देवदास को झप-सी महसूस होने लगी। उसने कहा—“अ छा, जाता ।ँ शाम हो
गई है। शरीर भी ठीक नह है।”
यह कह कर देवदास चला गया।
पाँचवाँ प र छे द
एक दन पावती क बु ढ़या दादी ने कहा—पावती ने अब तेरहव वष म पैर रखा है, इसके
याह क कु छ फकर करो।
वैसे भी इस अव था म शारी रक सौ दय न जाने कहाँ से दौड़ा आ प च
ँ ता है और
कशोरी के सवाग म छा जाता है। आ मीय- वजन सहसा एक दन च क कर देखते ह क
हमारी छोटी लड़क अब सयानी हो गई है। उस समय उसके िलए वर ठीक करने क फ
उ ह सताने लगती है। च वत बाबू के यहाँ भी कई दन से इसी बात क चचा हो रही है।
पावती क माता ब त ही िचि तत है। बात-बात म अपने पित को सुना कर कहती है क
अब पावती को घर रखा नह जा सकता। च वत बाबू बड़े आदमी तो नह थे, ले कन
स तोष क बात यह थी क उनक क या ब त सु दर थी। वे समझते थे क अगर संसार म
प क कोई मयादा या कदर है तो फर पावती के िलए अिधक िच ता करने क
आव यकता नह होगी। एक बात और भी है, वह भी यहाँ बतला दी जाय। च वत
प रवार म इससे पहले क या के िववाह के समय इतनी िच ता नह करनी पड़ती थी; हाँ,
पु के िववाह म करनी पड़ती थी। ये लोग क या के िववाह के समय धन लेते थे और
िववाह म वही धन दे कर ब को घर ले आते थे। नीलकं ठ के िपता ने भी अपनी क या के
समय धन िलया था; ले कन वयं नीलकं ठ इस था से ब त घृणा करते थे। उनक िबलकु ल
इ छा नह थी क पावती को बेच कर धन ा कर। पावती क माँ भी यह बात जानती
थी, इसिलए वह अपने वामी से पावती के िलए तगादा करती रहती थी। इससे पहले
पावती क माँ ने अपने मन म एक दुराशा भी पाल रखी थी। उसने सोचा क कसी
तरक ब से देवदास के साथ पावती का िववाह कया जा सके गा। उसे यह समझ म नह
आता था क देवदास के कु ल और प रवार को देखते ए यह अस भव ही था। वह सोचती
थी क अगर देवदास से अनुरोध कया जायगा तो शायद इसके िलए कोई अ छा रा ता
िनकल आयेगा। इसिलए जान पड़ता है क एक दन पारो क दादी ने बात -बात म
देवदास क माँ से इस तरह िज छेड़ दया—“ब , देवदास म और हमारी पावती म
कतना ेह है! ऐसा ेह और कह दखाई नह देता।”
देवदास क माँ ने कहा—“चाची, भला उन दोन म ेह य न होगा? दोन ही
भाई-बहन क तरह एक साथ पल कर सयाने ए ह।”
“हाँ बेटी, इसिलए तो खयाल होता है क अगर दोन का—देखो न ब , जब देवदास
कलक े गया था, तब हमारी ब ी के वल आठ वष क थी। ले कन उसी उमर म वह देव के
िवयोग म मानो सूख कर काठ हो गई थी। जब कोई िचट् ठी आती थी तब मानो उसके िलए
जप-माला हो जाती थी। हम सभी जानते ह।”
देवदास क माँ ने मन-ही-मन सब बात समझ ल । वह कु छ हँसी। यह तो नह मालूम
क उसक हँसी म कतना उपहास िछपा आ था, ले कन तकलीफ िन य ही ब त थी।
वह सब बात जानती थी और पावती को यार भी करती थी। ले कन वह थी तो खरीदिब वाले घर क ही लड़क ! ितस पर घर के पास ही समिधयाना! छीः-छी:। बोली
—“चाची, हमारे -तु हारे जमाने क बात और थी। ले कन अब तो...और फर घर के
मािलक क जरा भी इ छा नह है क इस छोटी उमर म, जो अिधकतर िलखने-पढ़ने का
समय है, देवदास का िववाह कर। इसिलए वे आजकल मुझसे कहा करते ह क छोटी
अव था म ही बड़े लड़के ि जदास का िववाह करके कतना बड़ा अनथ कया गया! उसक
िलखाई-पढ़ाई कु छ भी न हो सक ।”
पावती क दादी का मुँह फ का पड़ गया। फर भी उसने साहस करके कहा—“ब ,
यह सब तो म भी जानती ।ँ ले कन तु ह मालूम है क पारो पर ष ी देवी क कृ पा है। एक
तो य ही वह कु छ बढ़ गयी है और ितस पर उसक गठन भी कु छ ऐसी है क वह अिधक
सयानी जान पड़ती है। इसिलए...इसिलए अगर नारायण क इ छा न हो...”
देवदास क माँ ने उसे बीच म ही टोक कर कहा—“नह चाची, यह बात म उनसे
नह कह सकूँ गी। अगर इस समय म देवदास के याह क बात चलाऊँगी तो या वे मेरी
बात पर कान दगे?”
बात यह तक हो कर दब गई। ले कन ि य के पेट म बात नह पचती। जब देवदास
के िपता भोजन करने बैठे, तब देवदास क माँ ने उनके सामने यह बात चला कर कहा
—“पावती क दादी ने आज उसके याह क बात छेड़ी थी।”
देवदास के िपता ने िसर ऊपर उठा कर कहा—“हाँ, अब पावती सयानी हो गई है।
ज दी ही उसका याह कर डालना उिचत है।”
“तभी तो आज बात चलने पर उसक दादी ने कहा क अगर देवदास के साथ...”
वामी ने भौह िसकोड़ कर पूछा—“तुमने या कहा?”
“म और या कहती? दोन म ब त ही ेह है। ले कन या इसीिलए खरीद-िब
वाले च वत के घर क लड़क अपने घर म ला सकती ?ँ और फर घर के पास ही
समिधयाना! छी:-छी:।”
वामी स तु हो गये। उ ह ने कहा—“ठीक ही तो है। या हम अपने कु ल क हँसी
करावगे? तुम इन सब बात पर कान मत देना।”
गृिहणी ने सूखी हँसी हँस कर कहा—“नह , म कान नह देती। ले कन देखो, तुम भी
कह भूल न जाना।”
वामी ने भात का कौर उठा कर ग भीर मुख से कहा—“अगर ऐसा होता तो इतनी
बड़ी जम दारी न जाने कब क उड़ गयी होती।”
उनक जम दारी सदा अटल रहे, इसम कसी को या एतराज होता, ले कन हम
पावती के दुख क बात कहते ह। जब यह ताव पूरी तरह ठु कराये जाने के बाद नीलकं ठ
बाबू के कान तक प च
ँ ा, तब उ ह ने अपनी माँ को बुलाकर ितर कार के साथ कहा
—“माँ, भला तुम ऐसी बात य कहने गई थी?”
माँ चुप रही। नीलकं ठ कहने लगे—“लड़क का याह करने के िलए हम लोग के पैर
पड़ने क ज रत न होगी, बि क ब त-से लोग हमारे ही पैर आ कर पड़गे। हमारी लड़क
कु प नह है। देखो, म तुम लोग से कहे रखता ँ एक ह ते के अ दर ही म उसका स ब ध
ठीक कर डालूँगा। भला याह क िच ता या है?”
ले कन िजसके िलए िपता ने इतनी बड़ी बात कही थी, उसके िसर पर तो मानो
िबजली टू ट पड़ी। लड़कपन से ही उसक यह धारणा थी क देव दा पर उसका कु छ
अिधकार है। यह बात नह थी क वह अिधकार कसी दूसरे ने उसके हाथ म दे दया हो।
पहले तो वह खुद भी इस भावना को ठीक तरह से समझ नह सक थी। अ ात प से
अशा त मन ने दन-पर- दन यह अिधकार इस तरह चुपचाप और मजबूती से िलया था क
बाहर हालाँ क उसक कोई सूरत अब तक आँख के सामने नह आई थी, ले कन उस
अिधकार के िछनने क बात उठते ही उसके दय म जैसे एक भयंकर तूफान उठने लगा।
ले कन देवदास के बारे म यह बात ठीक इसी तरह से नह कही जा सकती थी।
बचपन म और कलक ा जाने से पहले तो वह पारो पर अपना अिधकार मानता था,
ले कन कलक ा जाने के बाद जैसे-जैसे उसका मन वहाँ रमने लगा, पावती के ित यह
भावना धीरे -धीरे ीण होती चली गयी। ले कन वह यह नह जानता था क पावती अपने
उस सदा एकरस चलने वाले ा य-जीवन म दन-रात के वल उसका ही यान करती आ
रही थी। वह यह तो सोचता था क लड़कपन से ही िजसे वह िनता त अपना समझता चला
आ रहा था और याय-अ याय सब तरह क िजद िजसके ऊपर इतने दन से थोपता रहा
था, यौवन क पहली सीढ़ी पर पैर रखते ही उसक ओर से इस कार अचानक पीछे
फसल पड़ना ठीक नह होगा। उसे यह आभास नह था क बचपन के इस ब धन को आगे
भी बनाये रखने के िलए िववाह ही एकमा उपाय था। ले कन उस समय याह क बात
कौन सोचता? कौन जानता था क यह कशोर-ब धन िववाह के अित र और कसी तरह
से िचर थायी करके नह रखा जा सकता?
इसिलए यह संवाद क 'िववाह नह हो सकता' पावती के दय क सम त आशा
और आकां ा को उसके कलेजे के अ दर से मानो उखाड़ फकने के िलए ख चा-तानी
करने लगा। पारो क तो पूरी दुिनया ही उजड़ गयी। वह खोयी-खोयी-सी रहने लगी।
ले कन, देवदास इस सब से अनजान था। सबेरे के समय उसका िलखना-पढ़ना होता था,
दोपहर को ब त गरमी पड़ती थी, घर से बाहर िनकलना नह हो सकता, बस तीसरे पहर
ही अगर वह चाहता तो कु छ देर के िलए घर से बाहर िनकल सकता था। इसी समय वह
कसी दन ब ढ़या कपड़े और ब ढ़या जूते पहन कर, हाथ म छड़ी िलये, बाहर िनकलता
था। जाते समय च वत -प रवार के मकान के पास से ही हो कर जाता था और पावती
ऊपर िखड़क म से अपनी आँख के आँसू प छती ई उसे देखा करती थी। न जाने कतनी
ही बात उसे याद आती थ । उसे खयाल आता क अब दोन ही बड़े हो गये थे। दीघ वास
के बाद अब पराय क तरह िमलने-जुलने म ब त ल ा होती थी। देवदास उस दन इसी
तरह चला गया था। यह बात पावती क समझ म आने से बाक न रही थी क वह शमाता
था, इसिलए अ छी तरह से बात भी न कर सका था। देवदास भी अमूमन इसी तरह
सोचता था। बीच-बीच म वह उसके साथ बात कर लेता। उसे अ छी तरह देखने क भी
इ छा देवदास के मन म होती। ले कन फर उसे यान आता क या यह अ छा दखेगा?
गाँव म कलक े क -सी धूमधाम नह थी; आमोद- मोद, िथयेटर, गाना-बजाना,
आ द कु छ भी नह था; इसिलए अ सर उसे अपने लड़कपन क बात याद आ जाया करती
थ । सोचता क वही पारो अब यह पावती हो गई है। पावती सोचती क वही देवदास अब
बाबू देवदास हो गया है। देवदास अब पहले क तरह च वत प रवार के घर नह जाता।
कसी- कसी दन शाम के समय उनके आँगन म खड़ा हो कर आवाज देता—“चाची, या
हो रहा है?”
चाची कहती—''आओ बेटा, बैठो।”
देवदास य ही कह देता—“नह चाची, रहने दो। जाऊँ, जरा घूम आऊँ।”
तब पावती कसी दन ऊपर रहती और कसी दन सामने पड़ जाती थी। देवदास
चाची के साथ बात करता था और पावती धीरे -धीरे वहाँ से हट जाती थी। रात को देवदास
के कमरे म रोशनी होती थी। ग मय क वजह से खुली ई िखड़क म से पावती उस ओर
अ सर देर तक देखा करती थी—ले कन, वहाँ उसे दखाई कु छ भी नह देता था। पावती म
हमेशा से वािभमान क एक भावना थी और इसीिलए वह ाण-पण से इस बात क चे ा
करती थी क वह जो इतना क सहती है, उसका कसी को ितल भर भी पता न चले। और
फर कसी को यह बात जतलाने से लाभ ही या था? अगर कोई सहानुभूित दखलायेगा
तो वह बरदा त न हो सके गी; ऊपर से ितर कार और लांछना? सो उससे तो मर जाना ही
अ छा है!
मनोरमा का अभी िपछले साल याह आ है, ले कन वह अभी तक ससुराल नह गई
है, इसिलए बीच-बीच म घूमती- फरती आ जाया करती है। पहले दोन सिखयाँ बीच-बीच
म िमल कर ेम, िववाह, पस द-नापस द के बारे म बातचीत कया करती थ । अब भी उस
तरह बात होती ह, ले कन पावती अब उन बात म योग नह देती। या तो चुप रह जाती है
या बात ही उलट देती है।
पावती के िपता कल रात को लौट कर घर आये ह। कई दन से वे पा ठीक करने के
िलए बाहर गये ए थे। अब िववाह क सब बात िनि त करके घर लौटे ह। ाय: बीसपचीस कोस दूर बदवान िजले के हाथीपोता गाँव के जम दार से पावती क शादी तय क है
उ ह ने। भुवन चौधरी नाम है, आ थक ि थित मजबूत है। उमर चालीस के आस-पास है,
दो-एक साल कम ही होगी। अभी िपछले साल उनक पहली ी का देहा त आ है,
इसिलए अब वे फर िववाह करगे। ऐसा नह था क इस समाचार ने घर के सभी लोग को
स ही कया, बि क वह दुख का कारण भी बना। तो भी, यह बात ज र है क भुवन
चौधरी के यहाँ से सब िमला कर दो-तीन हजार पये आ जायगे। इसिलए घर क औरत
चुप हो रह ।
एक दन दोपहर के समय देवदास भोजन करने बैठा था। उसक माँ ने पास बैठ कर
कहा—“पावती का याह हो रहा है!”
देवदास ने िसर उठा कर पूछा—“कब?”
“इसी महीने। कल लड़क को देख गये ह। वर खुद देखने आया था।”
देवदास ने कु छ िवि मत हो कर कहा—“मुझे तो यह सब कु छ भी नह मालूम।”
“तुम भला कै से जानोगे? वर दुहाजू है। अव था भी अिधक है। ले कन हाँ, पया-पैसा
काफ है। पावती सुख-चैन से रह सके गी।”
देवदास िसर नीचा करके भोजन करने लगा। उसक माँ फर कहने लगी— “उन
लोग क इ छा थी क हमारे यहाँ याह कर।”
देवदास ने िसर उठा कर पूछा—“ फर या आ?”
माँ ने हँसते ए कहा—“छी:; भला ऐसा कह हो सकता है! एक तो खरीद-िब
वाला छोटा घर; ितस पर घर के पास ही याह। छीः-छी:”—यह कह कर माँ ने ह ठ
िसकोड़े। देवदास ने यह देख िलया।
कु छ देर तक चुप रहने के बाद माँ ने फर कहा—“मने उनसे भी कहा था।”
देवदास ने िसर उठा कर पूछा—“तो फर बापूजी ने या कहा?”
“वे और या कहगे! अपने इतने बड़े वंश क हँसी तो करा नह सकते। और यही मुझे
सुना दया।”
देवदास ने फर कु छ न कहा। उसी दन दोपहर को मनोरमा और पावती म बातचीत
हो रही थी। पावती के आँसू, मालूम होता है, मनोरमा ने अभी-अभी प छे ह। मनोरमा ने
कहा—“तो फर पारो, और या उपाय है? हम लड़ कय को कहाँ इतनी छू ट क अपनी
पस द से िववाह कर।”
पावती ने कहा—“हाँ, और या? तुमने या अपने वर को पस द करके याह कया
था?”
“मेरी बात और है।” मनोरमा बोली—“मुझे तो पस द भी नह थे और ना-पस द भी
नह । इसीिलए मुझे कोई क नह भोगना पड़ा। ले कन तुमने तो अपने पैर म आप ही
कु हाड़ी मारी है।”
पावती ने कोई उ र नह दया, वह कु छ सोचने लगी।
मनोरमा ने जाने या समझ कर कु छ हँसते ए कहा—“पारो, वर क उमर कतनी
होगी?”
“ कसके वर क ?”
“तु हारे ।”
पावती ने कु छ िहसाब लगा कर कहा—“उ ीस।”
मनोरमा को ब त ही आ य आ। बोली—“यह या? मने तो अभी सुना है क
चालीस के करीब है।”
अब क पावती ने कु छ हँसते ए कहा—“मनो, न जाने कतने लोग क उमर
चालीस बरस आ करती है। म या उन सबका िहसाब रखती ?ँ म तो बस यही जानती
ँ क मेरे वर क उमर उ ीस-बीस बरस क होगी।”
पावती के मुँह क ओर देख कर मनोरमा ने पूछा—“और नाम या है?”
पावती ने फर हँसते ए कहा—“मालूम होता है, इतने दन म तुमने यह भी न
जाना!”
“भला म कै से जानूँगी?”
“नह जानत ? अ छा तो बतलाये देती ।ँ ” पहले तो कु छ हँस कर और फर ग भीर
हो कर पावती ने मनोरमा के कान के पास मुँह ले जा कर कहा—“तुम नह जानत , ी
देवदास...”
मनोरमा पहले तो कु छ च क पड़ी, ले कन फर उसने पारो को ढके लते ए कहा
—“ब त हँसी क ज रत नह । अभी बतला क उनका नाम या है— फर कभी तो
बतला नह सके गी।”
“अभी बतलाया तो।”
मनोरमा ने कु छ िबगड़ कर कहा—“अगर देवदास ही उनका नाम है, तो रो-रो कर
मरी य जाती है?”
सहसा पावती उदास हो गई। न जाने या सोचकर उसने कहा—“तो फर ठीक है,
अब म नह रोऊँगी।”
“पारो।”
“ या?”
“तुम सब बात खुल कर कहो न। म तो कु छ भी नह समझ सक ।”
पावती ने कहा—“जो कु छ कहना था, सो कह तो दया।”
“ले कन मेरी समझ म तो कु छ भी नह आया।”
“तुम समझ भी नह सकोगी।”
इतना कह कर पावती ने दूसरी ओर मुँह फे र िलया। मनोरमा ने सोचा क पावती
मुझसे बात िछपा रही है; अपने मन क बात नह कहना चाहती। वह नाराज हो गयी।
दुखी हो कर उसने कहा—“पावती, तु ह िजस बात म दुख होता है, मुझे भी तो उसम दुख
होता है। मेरी आ त रक ाथना यही है क तुम सुखी रहो। अगर तुम कोई बात मुझसे
िछपाना चाहती हो, मुझसे न कहना चाहती हो तो मत कहो। ले कन इस तरह मुझे उ लू
मत बनाओ।”
पावती दुखी ई। उसने कहा—“नह बहन, म हँसी नह करती। जो कु छ म जानती ँ
वही तु ह बतला रही ।ँ म यही जानती ँ क मेरे वामी का नाम देवदास है। अव था
उनक उ ीस बरस क है और यही मने तुमसे भी कही है।”
“ले कन मने तो अभी सुना है क तु हारा याह और कह प ा हो गया है।”
“प ा और या होगा। दादी के साथ तो याह होगा ही नह , होगा तो मेरे ही साथ
होगा। मने तो कह यह बात नह सुनी।”
मनोरमा जो कु छ सुन चुक थी, वही कह देना चाहती थी। ले कन पावती ने उसे बीच
म ही रोक कर कहा—“वह सब म सुन चुक ।ँ ”
“तब? देवदास तु ह...”
“मुझे या?”
मनोरमा ने हँसी रोक कर कहा—“तो फर शायद तुम वयंवर करोगी। चोरी से सब
बात प हो गई ह?”
“क ा-प ा अभी कु छ भी नह आ है।”
मनोरमा ने िथत वर से कहा—“पारो, तुम या कर रही हो, मेरी समझ म तो
कु छ भी नह आता।”
पावती ने कहा—“तो फर म देवदास से पूछ कर तु ह बतला दूग
ँ ी।”
“ या पूछोगी? वे याह करगे या नह , यही न?”
पावती ने िसर िहला कर कहा—''हाँ, यही।”
मनोरमा ने ब त ही च कत होकर कहा—“पारो, यह तुम या कह रही हो? या तुम
यह बात खुद पूछोगी?”
“इसम दोष ही या है?”
मनोरमा िब कु ल ह -ब रह गई—“ या कहती हो? खुद पूछोगी?”
“हाँ, खुद ही पूछूँगी। और नह तो मनो, मेरी तरफ से और कौन पूछेगा?”
“तु ह लाज न लगेगी?”
“इसम लाज काहे क ? तुमसे कहने म या मुझे लाज आई?”
“म औरत ठहरी, तु हारी सहेली। ले कन पारो, वे तो पु ष ह।”
अब क पावती हँस पड़ी। उसने कहा—“तुम सहेली हो और अपनी हो। ले कन वे या
पराये ह? जो बात म तुमसे कह सकती ँ वह या उनसे नह कही जा सकती?”
मनोरमा च कत हो कर उसके मुँह क ओर देखती रही।
पावती ने हँसते ए कहा—“मनोरमा बहन, तुम झूठ-मूठ ही िसर म िस दूर लगाती
हो। तुम यह नह जानत क वामी कसे कहते ह। अगर वे मेरे वामी न होते और मेरी
सारी लाज-शरम से परे न होते तो म इस तरह मरने न बैठती। इसके िसवा बहन, आदमी
जब मरने पर उता हो जाता है तब वह या इस बात का िवचार करने बैठता है क िवष
कड़वा है या मीठा? उनके सामने मुझे कसी बात क ल ा नह है।”
मनोरमा उसके मुँह क ओर देखती रही। फर कु छ देर बाद बोली—“ या तुम उनसे
यह कहोगी क मुझे अपने चरण म थान दो?”
पावती ने िसर िहला कर कहा—“बहन, ठीक यही बात क ग
ँ ी।”
“और अगर उ ह ने थान न दया तो?”
इस पर पावती ब त देर तक चुप रही। फर उसने कहा—“बहन, यह म नह जानती
क तब या होगा।”
घर लौटते समय मनोरमा ने सोचा—ध य है इसका साहस और ध य है इसका
कलेजा! म अगर मर भी जाऊँ तो ऐसी बात जबान पर नह ला सकती।
बात भी ठीक ही थी। इसिलए तो पावती ने कहा था क वह बेकार ही िस दूर लगाती
है और हाथ म चूिड़याँ पहनती है।
छठा प र छे द
रात के एक बजे का समय होगा। आसमान म तारे चमक रहे थे। पावती िब तर क चादर
को िसर से पैर तक चादर लपेट कर धीरे -धीरे सी ढ़याँ उतर कर नीचे आई। उसने चार
ओर देखा, कह कोई जाग तो नह रहा है। इसके बाद वह दरवाजा खोल कर चुपचाप
रा ते पर आ गई। चार तरफ स ाटा छाया आ था। कसी के साथ आमना-सामना होने
क आशंका नह थी। वह िबना कसी बाधा के नारायण मुखज के मकान के सामने आ
खड़ी ई। डयोढ़ी पर वृ दरबान कशुन संह ख टया िबछा कर तब भी तुलसी रामायण
पड़ रहा था। पावती को अ दर आते देख कर उसने िबना िसर उठाये ही पूछा—“कौन?”
पावती ने कहा—“म।”
दरबान ने कं ठ वर से समझ िलया क कोई ी है। उसने समझा क कोई दासी
होगी, इसिलए उसने िबना और कु छ पूछे ही लय-सुर से रामायण पढना आर भ कर दया।
पावती अ दर चली गई। गरमी के दन थे। बाहर आँगन म कई नौकर सो रहे थे। उनम से
कु छ सोये ए थे और कु छ आधी न द म थे। न द के झ क म अगर कसी ने पावती को देखा
भी तो दासी समझ कर उससे कु छ भी नह कहा। पावती िन व अ दर प च
ँ कर सी ढ़य
से होती ई ऊपर जा प च
ँ ी। इस घर के कोने-कोने से वह अ छी तरह प रिचत थी।
देवदास का कमरा पहचानने म उसे देर नह लगी। दरवाजा खुला आ था और अ दर
दीया जल रहा था। पावती ने अ दर प च
ँ कर देखा क देवदास िब तर पर सोया आ है।
िसरहाने क तरफ उस समय भी कोई कताब खुली पड़ी थी। भाव से मालूम आ क मानो
अभी-अभी न द आ गयी है। दीया और तेज करके वह चुपचाप आ कर देवदास के पैर के
पास बैठ गई। दीवार पर टँगी ई घड़ी िसफ टक- टक कर रही है। इसके िसवा और सब
कु छ खामोश था।
पैर पर हाथ रख कर पावती ने धीरे से पुकारा—“देव दा...”
देवदास ने न द क झ क म समझा क कोई बुला रहा है। उसने िबना आँख खोले ही
कहा—“ ।ँ ”
“ओ देव दा!”
अबक देवदास आँख मलता आ उठ बैठा। पावती के मुख पर घूँघट नह है। घर म
दीया भी खूब तेज जल रहा है। देवदास ने सहज म ही उसे पहचान िलया। ले कन पहले
उसे िव ास ही नह आ। इसके बाद उसने कहा—“यह या? कौन पारो?”
“हाँ, म ।ँ ”
देवदास ने घड़ी क तरफ देखा। उसका आ य और भी बढ़ गया। उसने कहा
—“इतनी रात को?”
पावती ने कोई उ र नह दया; वह िसर नीचा कये चुपचाप बैठी रही। देवदास ने
फर पूछा—“इतनी रात को या अके ली आई हो?”
पावती ने कहा—“हाँ।”
मारे उ ग
े और आशंका के देवदास के रोय खड़े हो गये। उसने कहा— “तुम या कर
रही हो, रा ते म डर नह लगा।”
पावती ने कु छ मु कराते ए कहा—“मुझे भूत से उतना डर नह लगता।”
“भूत का भय नह ले कन आदमी से डर लगता है? य आई हो?”
पावती ने कोई उ र नह दया, ले कन मन-ही-मन कहा—“इस समय तो वह भी
शायद मुझे नह लगता।”
“तुम मकान के अ दर कस तरह आय ? कसी ने देखा तो नह ?”
“दरबान ने देखा था।”
देवदास ने आँख फाड़ कर कहा—“दरबान ने देखा है? और कसी ने ?”
“आँगन म नौकर सोये ए ह। हो सकता है क उनम से भी कसी ने देखा हो।”
देवदास िबछौने पर से कू द कर खड़ा हो गया और झपट कर उसने दरवाजा ब द कर
िलया। फर कहा—“ कसी ने तु ह पहचाना?”
पावती ने कु छ भी उ कं ठा कट कये िबना अ य त सहज भाव से कहा—“वे सभी
मुझे जानते ह। हो सकता है क कसी ने पहचान भी िलया हो।”
देवदास क िसट् टी-िपट् टी गुम हो गयी। सकपका कर उसने पूछा—“ या कह रही
हो? पारो, तुमने ऐसा काम य कया ?”
पावती ने मन-ही-मन कहा—“तुम कै से समझ सकोगे!”
ले कन उसने देवदास क बात का कोई उ र नह दया। वह चुपचाप िसर नीचा
कये बैठी रही।
“इतनी रात को! छीः-छी:। कल अपना मुँह कै से दखलाओगी?”
िसर नीचा कये ए ही पावती ने कहा—“मुझम वह साहस है।”
यह सुन कर देवदास ने ोध नह कया, ले कन ब त ही परे शान हो कर कहा
—“छी:-छी:, या अब भी तुम ब ी हो? इस तरह यहाँ आने म या तु ह तिनक भी शम
नह लगी?”
पावती ने िसर िहला कर कहा—“कु छ भी नह ।”
“कल या शम से तु हारा िसर नीचा न होगा?”
सुन कर पावती ने तीखी ले कन क ण दृि से कु छ देर तक देवदास क ओर देख
कर िन संकोच भाव से कहा—“अगर मुझे यह प ा िव ास न होता क तुम मेरी सारी
ल ा ढँक लोगे तो सचमुच िसर नीचा होता।”
देवदास ने हैरान हो कर कहा—''ले कन म या मुँह दखला सकूँ गा?”
कु छ देर तक चुप रह कर पारो ने कहा—“तुम पु ष ठहरे । आज नह तो कल तु हारे
कलंक क बात सब लोग भूल जायगे। दो दन बाद कसी को इस बात का यान भी न रह
जायेगा क कब कस रात को हतभािगनी पावती तु हारे पैर पर अपना िसर रखने के
िलए अपना सब कु छ दाँव पर रख कर यहाँ आई थी।”
“पारो, यह या कह रही हो?”
“और म...”
म -मु ध क तरह देवदास ने कहा—“और तुम?”
“मेरे कलंक क बात कहते हो? नह , मुझ पर कोई कलंक नह । अगर इस बात के
िलए मेरी िन दा हो क म तु हारे पास िछप कर आई थी तो वह िन दा मुझे नह लगेगी।”
“ह पारो, तुम या रो रही हो?”
“देव दा, नदी म कतना जल है! या उतने जल से भी मेरा कलंक न धुलेगा?”
सहसा देवदास ने पावती के दोन हाथ पकड़ िलए और कहा—“पावती!”
पावती ने देवदास के पैर िसर रख कर अव
वर से कहा—“देव दा, बस, यह
मुझे थोड़ा-सा थान दे दो।”
इसके बाद दोन ही चुप हो रहे। देवदास के पैर पर से बहते ए आँसु क कई बूँद
िब तर पर जा पड़ी।
ब त देर के बाद देवदास ने पावती का िसर ऊपर उठा कर कहा—“पारो, या मेरे
िसवा तुम और कसी से याह नह कर सकत ?”
पावती कु छ नह बोली। वह उसी तरह देवदास के पैर पर िसर रखे ए पड़ी रही।
उस कमरे क चु पी को िसफ आँसु से ाकु ल उसक ल बी-ल बी साँस ही भंग कर रही
थ । टन-टन करके घड़ी म दो बजे। देवदास ने पुकारा—“पारो!”
पावती ने ँ धे ए गले से कहा—“ या?”
“तुमने सुना है क मेरे माता-िपता इससे िबकु ल सहमत नह ह?”
पावती ने िसर िहला कर उ र दया क हाँ, सुना है। इसके बाद फर दोन चुप हो
रहे। ब त देर बीत जाने पर देवदास ने ल बी साँस ले कर कहा—“तो फर ऐसी बात य
करती हो?”
िजस तरह जल म डू बने पर आदमी कनारे क िमट् टी को भी खूब कस कर पकड़
लेता है, उसे कसी तरह छोड़ना नह चाहता, ठीक उसी तरह पावती ने भी अ ध क तरह
देवदास के दोन पैर कस कर पकड़े रखे। उसने देवदास के मुख क ओर देख कर कहा
—“देव दा, यह बात म कसी तरह नह जानना चाहती।”
“पावती, या म माता-िपता क आ ा के बाहर हो जाऊँ?”
“इसम दोष ही या है? हो जाओ।”
“तो फर तुम कहाँ रहोगी?”
पावती ने रोते ए कहा—“तु हारे चरण म।”
फर दोन कु छ देर तक चुपचाप बैठे रहे। घड़ी म चार बज गये। ग मय क रात थी।
अब थोड़ी ही देर म सबेरा होना चाहता है-यह देख कर देवदास ने पावती का हाथ पकड़
कर कहा—“चलो, तु ह घर प च
ँ ा आऊँ।”
“मेरे साथ चलोगे?”
“इसम हज ही या है? अगर बदनामी होगी तो कु छ उपाय भी हो सके गा।''
''तो फर चलो।”
दोन िनःश द पैर रखते ए बाहर िनकल आये।
सातवाँ प र छे द
दूसरे दन अपने िपता के साथ देवदास क थोड़ी देर तक कु छ बातचीत ई। िपता ने कहा
—“तुम सदा से मुझे ब त दक करते आये हो। िजतने दन जीता र ग
ँ ा, उतने दन तुम
इसी तरह मुझे दक करते रहोगे। तु हारे मुँह से ऐसी बात िनकले, इसम कु छ भी आ य
नह ।”
देवदास चुपचाप िसर झुकाये बैठा रहा।
िपता ने कहा—“म इन सब बात म नह पड़ता। जो कु छ करना हो, वह तुम और
तु हारी माँ िमल कर तय कर लो।”
देवदास क माँ ने यह बात सुन कर रोते ए कहा—“बेटा, यह भी मेरे भा य म बदा
था!”
उसी दन देवदास बो रया-बँधना बाँध कर कलक े चला गया।
पावती यह बात सुन कर कठोर मुख से और भी अिधक कठोर हँसी हँस कर चुप हो
रही। िपछली रात क बात कोई जानता नह और उसने भी कसी से नह कही। हाँ,
मनोरमा आई और बोली—“पावती, सुना है क देवदास कलक े चले गये?”
“हाँ।”
“तो फर तेरा या उपाय कया?”
उपाय क बात वह खुद ही नह जानती थी, दूसरे को या बतलाती? आज कई दन
से वह बराबर यही सोचती आ रही है, ले कन फर कसी तरह तय नह कर पायी क उसे
आशा कतनी है और िनराशा कतनी। ले कन यह बात ज र है क ऐसे बुरे समय म जब
मनु य को आशा और िनराशा का कोई कू ल- कनारा नह दखाई देता तब दुबल मन डर के
मारे आशा क पतवार को ही खूब कस कर पकड़े रहता है। िजस बात के होने म उसका
मंगल है, उसी बात क वह आशा करता है। चाहे इ छा से हो या अिन छा से, वह उसी
ओर उ सुक ने से देखना चाहता है। इस अव था म पावती भी ब त कु छ जोर लगा कर
आशा कर रही थी क कल रात वाली बात अव य ही िवफल न होगी। िवफल होने पर
उसक या दशा होगी, इसका िवचार उसक िच ता क सीमा के बाहर जा पड़ा था,
इसिलए वह सोच रही थी क देव दा फर आयगे और फर मुझे पुकार कर कहगे, “पारो,
जहाँ तक मेरा बस चलेगा, म तु ह दूसरे के हाथ न दे सकूँ गा।”
ले कन दो ही दन बाद पावती को इस कार का प िमला“पावती, आज दो दन से म िसफ तु हारी ही बात सोच रहा ।ँ िपता और माता म
से कसी क इ छा नह है क हम लोग का िववाह हो। तु ह सुखी करने के िलए उन लोग
को जो भारी आघात प च
ँ ाना होगा, वह मेरे िलए स भव नह । इसके अलावा, उन लोग
के िव
हो कर यह काम म कर ही कै से सकूँ गा? तु ह फर कभी प िलख सकूँ गा, इसक
भी स भावना नह । इसीिलए इस प म ही सब कु छ खोल कर िलख रहा ।ँ तु हारा घर
नीचा है, माँ कसी तरह खरीद-िब वाले घर क लड़क अपने घर म नह लायगी; और
घर के पास ही समिधयाना करना भी उ ह ब त नापस द है। बाबूजी क बात तो तुम सब
जानती ही हो। उस रात क बात याद करके मुझे ब त ही लेश हो रहा है। कारण, यह
बात म ब त अ छी तरह जानता ँ क तु हारे जैसी वािभमानी लड़क ने कतनी
िववशता म वह काम कया होगा।”
“और एक बात है। यह बात कभी मेरे यान म नह आई क म तु ह इतना अिधक
चाहता ँ क तु ह प ी बनाऊँ। आज भी म अपने दय म तु हारे िलए कु छ ब त अिधक
क का अनुभव नह कर रहा ।ँ मुझे के वल इसी बात का दुख है क तुम मेरे िलए क
पाओगी। कोिशश करके मुझे भूल जाना और म दय से आशीवाद देता ँ क तुम इसम
सफल रहो।
—देवदास”
जब तक देवदास ने यह प डाकखाने म नह छोड़ा था तब तक वह एक बात सोच
रहा था; ले कन रवाना करने के बाद तुर त ही वह दूसरी बात सोचने लगा। अपने हाथ का
ढेला फकने के बाद वह एकटक उसी तरफ देखता रहा। उसके मन म एक अिन द शंका
धीरे -धीरे जड़ पकड़ रही थी। वह सोचता था क वह ढेला पारो के िसर पर कस तरह
पड़ेगा। या उसे ब त तेज चोट लगेगी? वह बच तो जायगी? पो ट आ फस से घर लौटते
समय रा ते म पग-पग पर देवदास को यही यान होता था क उस रोज रात को मेरे पैर
पर िसर रख कर पावती कतना रोयी थी। या यह अ छा काम आ? और सबसे बढ़ कर
देवदास यह सोच रहा था क जब खुद पावती का कोई दोष नह है तो फर िपता-माता
य मना करते ह? कु छ तो वय क होने के कारण और कु छ कलक े म रहने के कारण अब
यह बात उसक समझ म आने लग गई थी क लोक- दखाऊ कु ल-मयादा और एक हीनिवचार के ऊपर िनभर करके िनरथक कसी क िज दगी न नह करनी चािहए। अगर
पावती न जीना चाहे, अगर वह अपने दय क वाला शा त करने के िलए दौड़ कर नदी
के जल म जा कू दे तो या िवधाता के चरण म उस पर एक महापातक का पाप न लगेगा?
घर आ कर देवदास अपने कमरे म लेट गया। आजकल वह एक मेस म रहा करता है।
अपने मामा के यहाँ रहना उसने ब त दन से छोड़ दया है। वहाँ उसका कसी तरह से
सुभीता नह बैठता था। िजस कमरे म देवदास रहा करता है, उससे सटे ए कमरे म चु ी
लाल नाम का एक युवक कोई नौ वष से रहता आ रहा है। वह बी.ए. पास करने के इरादे
से ही इतने ल बे समय से कलक े म रह रहा है, ले कन नौ बरस म बीए नह कर पाया
और लगता यही है क अगले नौ बरस म भी नह कर पायेगा। इसी उ मीद म वह कलक े
म टका आ है। फलहाल चु ी लाल हर रोज क तरह अपने सा य मण के िलए
िनकला है और सुबह के समय ही लौटेगा। बासे म अभी और कोई नह आया है। नौकरानी
आ कर दीया जला गई और देवदास अपने कमरे का दरवाजा ब द करके लेट गया।
इसके बाद एक-एक करके सभी लोग लौट कर आ गये। भोजन के समय लोग ने
देवदास को पुकारा, ले कन वह उठा नह । चु ी लाल कभी रात को बासे म नह आता;
आज भी नह आया।
उस समय रात का एक बज गया है। बासे म देवदास के िसवा और कोई जाग नह
रहा। तभी चु ी लाल लौट कर आया और देवदास के कमरे के सामने खड़ा हो गया।
दरवाजा ब द है, ले कन अ दर रोशनी जल रही है। उसने पुकारा—“देवदास, जाग रहे
हो?”
देवदास ने अ दर से उ र दया—“हाँ। आज इतनी ज दी आ गये?”
चु ी लाल कु छ हँस कर बोला—“हाँ। आज शरीर कु छ ठीक नह है,” और चला गया।
कु छ देर बाद वह फर लौट आया और बोला—''देवदास, जरा दरवाजा खोल सकते हो?''
“हाँ-हाँ, खोल सकता ।ँ य ?”
“तमाखू का इ तजाम है?”
“हाँ, है।”
यह कह कर देवदास ने दरवाजा खोल दया। चु ी लाल तमाखू भरने बैठ गया और
बोला—“देवदास, तुम अभी तक जाग य रहे हो?”
“अरे , न द या रोज आया करती है?”
“नह आती?”
चु ी लाल ने कु छ मजाक उड़ाते ए कहा—“म समझता था क तु हारे जैसे अ छे
लड़के कभी आधी रात का मुँह नह देखते ह गे। ले कन आज मुझे एक नई िश ा िमली।”
देवदास ने कोई उ र दया। चु ी लाल ने मजे म तमाखू पीते ए कहा—“देवदास,
जब से तुम घर से लौट कर आये हो तब से मालूम होता है क तु हारा िच ठकाने नह है,
कोई लेश है।”
देवदास उस समय अ यमन क हो गया था, उसने कोई उ र नह दया।
“तु हारा मन ठकाने नह है। य यही बात है न?”
देवदास अचानक उठ कर िबछौने पर बैठ गया और
भाव से उसके मुँह क ओर
देख कर बोला—“अ छा चु ी बाबू, तु हारे मन म या कोई लेश नह है?”
चु ी लाल हँस पड़ा, बोला—“िबकु ल नह ।”
“इस जीवन म कभी कोई लेश नह पाया?”
“आिखर यह य पूछ रहे हो?”
“मुझे सुनने का शौक है।”
“अ छा तो फर कसी दन सुनना।”
देवदास ने पूछा—“अ छा चु ी लाल, तुम रात-रात भर कहा रहते हो?”
चु ी लाल ने कु छ मु कराते ए कहा—“सो या तुम जानते नह हो?”
“जानता तो ।ँ मगर ठीक तरह से नह जानता।”
चु ी लाल का चेहरा मारे उ साह के िखल उठा। इस तरह क चचा म चाहे और कु छ
भी न हो, फर भी आँख देखे क एक शम होती है। ले कन दीघ अ यास से चु ी लाल उसे
भी भुला चुका है। उसने कौतुक के साथ आँख ब द करके कहा—“देवदास, अ छी तरह
जानने के िलए ठीक मेरी ही तरह का होने क ज रत है। कल हमारे साथ चलोगे?”
देवदास ने पहले तो कु छ देर तक सोचा और तब उ र दया—''सुना है क वहाँ खूब
मजा भी आता है और कोई क नह रह जाता; या यह ठीक है?”
“िब कु ल सोलह आने ठीक है।”
“अगर यही तो फर मुझे भी ले चलना—म चलूँगा।”
दूसरे दन स या से कु छ पहले ही चु ी लाल ने देवदास के कमरे म प च
ँ कर देखा
क वह ब त ज दी-ज दी अपना सब सामान बाँध कर दु त कर रहा है। च कत हो कर
पूछा—“यह या? चलोगे नह ?”
देवदास िबना कसी ओर देखे कहा—हाँ, चलूँगा य नह ।
“तब यह सब या कर रहे हो?”
“जाने का इ तजाम कर रहा ।ँ ”
चु ी लाल ने कु छ मु कराते ए सोचा क तैयारी कु छ बुरी नह है और पूछा—“ या
सारा घर-बार भी साथ ही ले चलोगे?”
“नह तो कसके पास छोड़ जाऊँगा?”
चु ी लाल समझ नह पाया। उसने कहा—“आिखर म अपना सारा सामान कसके
पास रख जाता ?ँ सब तो यह बासे म पड़ा रहता है।”
देवदास ने सहसा होश म आ कर कु छ लि त भाव से कहा—“चु ी बाबू, आज म
घर जा रहा ।ँ ”
“यह य ? और लौटगे कब?”
देवदास ने िसर िहला कर कहा—“अब म नह आऊँगा।”
चु ी लाल च कत होकर उसके मुँह क ओर देखने लगा। देवदास कहने लगा—“ये
पये लो। लोग का मेरे िज मे जो कु छ बाक है, वह सब इसम से चुका देना। अगर कु छ
बच रहे तो बासे क नौकरानी और नौकर को बाँट देना। िजतना देना हो वह सब इसी म से
चुका देना। अब म कभी कलक े नह आऊँगा।”
फर उसने मन-ही-मन कहा—कलक े आने से ब त कु छ चला गया है।
आज यौवन के कु हासे से भरे ए अ धकार को भेद कर मानो उसे दखाई दे रहा था
क उस दुदा त दु वनीत कशोर वयस का वह अयािचत पददिलत र इस कलक े क
तुलना म भी कह अिधक बड़ा और कह अिधक मू यवान है। फर चु ी लाल के मुँह क
ओर देख कर उसने कहा—“चु ी बाबू, िश ा, िव ा, बुि , ान, उ ित जो कु छ है, सब
सुख के िलए है। चाहे िजस तरह से देखो, अपना सुख बढ़ाने के िसवा यह सब और कु छ भी
नह है।”
चु ी लाल ने उसे बीच म ही रोक कर कहा—“तो या अब तुम िलखना-पढ़ना सब
कु छ छोड़ दोगे?”
“िब कु ल। अगर मुझे पहले यह मालूम होता क िसफ इतना पढ़ने-िलखने से ही मेरा
इतना अिधक नुकसान हो जायेगा तो म इस ज म म कभी कलक े का मुँह भी न देखता।”
“आिखर तु ह हो या गया है?”
देवदास सोचने लगा। फर कु छ देर बाद बोला—“अगर फर कभी भट होगी तो सब
बात बतलाऊँगा।”
उस समय रात के लगभग नौ बजे थे। बासे के सब लोग ने और चु ी लाल ने
अितशय िवि मत हो कर देखा क देवदास गाड़ी पर अपना सारा असबाब रख कर और
बासा छोड़ कर मानो सदा के िलए अपने घर चला गया। उसके चले जाने पर चु ी लाल ने
नाराज हो कर बासे के और सब लोग से कहा—इस तरह के रं गे िसयार को कोई ज दी
नह पहचान सकता!
आठवाँ प र छे द
होिशयार और जानकार लोग का वभाव होता है क वे िसफ एक बार जरा-सा देख कर
ही कसी चीज के दोष या गुण के बारे म अपनी राय कट नह करते, सब ओर से पूरा
िवचार कये िबना पूरी धारणा नह बना लेते, दो तरफ से देख कर चार ओर क बात नह
कहते। ले कन एक और क म के लोग भी होते ह जो इससे िब कु ल उलटे होते ह। ऐसे
लोग म कसी बात पर अिधक देर तक िवचार करने का धीरज नह होता। जहाँ उनके
हाथ म कोई चीज आयी क वे तुर त ही िन य कर लेते ह क यह भली है अथवा बुरी।
कसी बात क तह तक प च
ँ कर उसे देखने के िलए िजतने प र म क आव यकता होती
है, उसका काम ये लोग अपने िव ास के जोर पर ही चला लेते ह। यह बात नह है क इस
तरह के लोग संसार म कु छ अिधक काम न कर सकते ह , बि क अनेक अवसर पर तो ये
लोग अ सर अिधक काम भी कर जाते ह अगर भा य स हो तो ऐसे लोग उ ित के
सव िशखर पर भी दखाई पड़ते ह और नह तो फर अवनित के गहरे गड् ढे म सदा के
िलए सो जाते ह, फर उठ नह सकते, बैठ नह सकते, काश क ओर नह देखते, िन ल
और मृत हो कर जड़ पदाथ क तरह पड़े रहते ह। देवदास भी इसी ेणी का मनु य था।
दूसरे दन सुबह-सवेरे वह घर जा प च
ँ ा। माँ ने च कत हो कर पूछा—“देवदास या
कॉलेज म फर छु ट् टयाँ हो गई?”
देवदास िसफ 'हाँ' कह कर अ यमन क ि क तरह आगे बढ़ गया— िपता के
का उ र भी वह कु छ इसी तरह दे कर उनसे क ी काट चला गया।
उ ह ने ठीक तरह से समझ न सकने के कारण गृिहणी से पूछा। उ ह ने बुि लड़ा कर
कहा—“गम अभी तक कम नह ई है, इसिलए फर छु ट् टी हो गई है!”
दो दन तक देवदास इधर-उधर छटपटाता आ घूमता रहा, य क जो कु छ वह
चाहता था, वह हो नह रहा था। पावती के साथ एका त म उसक भट ही नह ई। एक
दन पावती क माँ ने देवदास को अपने सामने देख कर कहा—“बेटा, अगर तुम आ ही गये
हो तो पावती के याह तक ठहर जाओ।”
देवदास ने कहा—“अ छा।”
दोपहर को भोजन आ द समा हो जाने पर पावती पोखर पर पानी लाने के िलए जाया
करती है। बगल म पीतल क कलसी ले कर आज भी घाट पर आ कर खड़ी हो गई। देखा क
पास ही देवदास एक बेर के पेड़ क आड़ म पानी म बंसी डाले बैठा आ है। एक बार उसके
मन म आया क यहाँ से लौट चलूँ। फर मन म आया क चुपचाप जल भर कर चली जाऊँ।
ले कन वह दोन म से एक काम भी ज दी न कर सक । जब वह घाट पर कलसी रखने लगी
तब शायद कु छ आवाज ई िजससे देवदास ने िसर उठा कर उसक ओर देखा। इसके बाद
उसने हाथ से इशारा करते ए पुकार कर कहा—“पारो, जरा सुन जाओ।”
पावती धीरे -धीरे उसके पास जा कर खड़ी हो गयी। देवदास ने िसफ एक बार िसर
ऊपर उठाया, फर वह ब त देर तक शू य दृि से जल क ओर देखता रहा। पावती ने पूछा
—“देव दा, मुझसे कु छ कहना है?”
देवदास ने िबना कसी ओर देखे कहा“हाँ, बैठो।”
ले कन पावती बैठी नह , िसर नीचा कये खड़ी रही। जब कु छ देर तक
कोई बात नह ई तब पावती ब त धीरे -धीरे पैर बढ़ाती ई घाट क ओर लौटने
लगी। देवदास ने एक बार िसर उठा कर देखा। इसके बाद उसने फर जल क ओर देखते
ए कहा—“सुनो।”
पावती फर लौट आई। ले कन देवदास फर भी उससे कोई बात न कह सका और यह
देख कर पावती फर घाट क तरफ लौटने लगी। देवदास त ध हो कर बैठा रहा। थोड़ी देर
बाद उसने घूम कर देखा क पावती जल ले कर चलना चाहती है। तब वह बंसी एक
कनारे रख कर घाट के पास आ खड़ा आ और बोला, “म आ गया ।ँ ”
पावती ने िसफ कलसी जमीन पर रख दी, ले कन कु छ कहा नह ।
“म आ गया ँ पारो!”
पावती पहले तो कु छ देर तक चुप रही और अ त म ब त ही कोमल वर म बोली
—“कै से आना आ?”
“तु ह प िलखा था, याद नह है?”
“नह ।”
“यह या पारो, उस रात क बात याद नह है?”
“याद तो है। ले कन अब उस बात से मतलब?”
उसका कं ठ वर ि थर ले कन ब त ही खा था। देवदास ने उसका मम नह समझा
और कहा—“मुझे माफ करो पारो, तब मने इतना नह समझा था।”
“चुप रहो। वे सब बात सुनना भी मुझे अ छा नह लगता।”
“िजस तरह से भी होगा म माता-िपता को राजी कर लूँगा। बस तुम...”
पावती ने देवदास के चेहरे क तरफ एक बार ती ण दृि से देख कर कहा—“तु हारे
माता-िपता ह, और मेरे नह ? उनके राजी होने या न होने क ज रत नह ?”
देवदास ने लि त हो कर कहा—“हाँ, ह य नह पारो? ले कन उ ह तो इससे
इनकार नह है बस तुम...”
“तुमने कै से जाना क उनक नामंजूरी नह है? िब कु ल नामंजूरी है।”
“देवदास ने हँसने का िवफल यास करते ए कहा“नह जी, उनक जरा भी
असहमित नह हैइसे म अ छी तरह जानता ,ँ बस तुम...”
पावती बीच म ही तीखी आवाज म बोल उठीिसफ म? तु हारे साथ? छीः...”
पलक मारते ही देवदास क दोन आँख आग क तरह जल उठ । उसने कठोर वर म
कहा—“पावती, या तुम मुझे भूल गय ?”
पहले पावती कु छ ठठक , ले कन फर उसने तुर त ही अपने आप को सँभाल कर
शा त, क ठन वर म उतर दया“नह , भूलूँगी य ? म लड़कपन से तु ह देखती आ रही ।ँ
जब से होश सँभाला है, तभी से तुमसे डरती आ रही ।ँ सो या इसिलए तुम मुझे भय
दखलाने के िलए आये हो? ले कन मुझको भी या तुम नह पहचानते?”
यह कह कर वह िनभ क भाव से तन कर खड़ी हो गई।
पहले तो देवदास के मुँह से कोई बात नह िनकली। फर कु छ देर बाद उसने
कहा“सदा से मुझसे डरती ही रही हो? और कु छ भी नह ?”
पावती ने दृढ़ वर से कहा“नह , और कु छ भी नह ।”
“सच कहती हो?”
“हाँ, सच ही कहती ँ तुम पर मेरी जरा भी
ा नह है। म िजनके पास जा रही ँ
वे धनवान, बुि मान, शा त और ि थर ह। वे धा मक ह । मेरे माता—िपता मेरी मंगलकामना करते ह। इसिलए वे मुझे तु हारे जैसे अ ानी, चंचल—िच और दुदा त ि के
हाथ कभी कसी तरह न स पगे। तुम रा ता छोड़ दो।”
“पहले तो देवदास ने कु छ इधर-उधर कया, एक बार मानो रा ता छोड़ने के िलए भी
वह तैयार हो गया। ले कन फर तुर त ही दृढ़तापूवक मुँह उठा कर बोला—“इतना
अहंकार!”
पावती ने कहा—“ य नह होगा? तुम अहंकार कर सकते हो, म नह कर सकती?
तुम म प है, गुण नह है; मुझम प है और गुण भी है। तुम लोग बड़े आदमी हो, ले कन
मेरे िपता भी भीख नह माँगते- फरते। इसके िसवा आगे चल कर म खुद भी तुम लोग पर
शायद भारी ही पड़ू,ँ यह जानते हो?”
देवदास अवाक् हो गया।
पावती फर कहने लगी“तुम सोच रहे हो क तुम मेरा ब त अिधक नुकसान कर
सकोगे। अिधक न सही, ले कन कु छ नुकसान ज र कर सकते हो, यह म जानती ।ँ अ छा,
वही करो। बस मेरा रा ता छोड़ दो।”
देवदास ने हत-बुि हो कर पूछा“नुकसान कै से क ं गा।”
पावती ने तुर त ही उ र दया“मेरी बदनामी करके । अ छा, जाओ बदनामी ही कर
लेना।”
यह सुन कर देवदास ह ा-ब ा हो कर उसे देखने लगा। उसके मुँह से के वल इतना ही
िनकला“म तु हारी बदनामी क ँ गा?”
पावती ने जहरीली हँसी हँस कर कहा“जाओ, आिखरी व मेरे नाम पर कलंक-भरी
घोषणा कर दो। उस रात को म तु हारे पास अके ली गई थी, यही बात चार तरफ सब पर
जािहर कर दो, इससे तु ह ब त कु छ स तोष हो जायगा।"
यह कहते-कहते पावती के गव ले, ोध-भरे ह ठ काँपते-काँपते क गये।
ले कन देवदास का दय, मारे ोध और अपमान के , चट-चट करके जल उठा। उसने
चीख कर कहा“तु हारे नाम पर झूठा कलंक लगा कर म अपने मन म स तोष ा
क ँ गा?” और दूसरे ही ण बंसी क मोटी मु ठया खूब ज़ोर से घुमाते ए भीषण वर म
कहा,“सुनो पावती, अपने प पर इतराना अ छा नह है। इससे अहंकार ब त बढ़ जाता
है।” और इसके बाद उसने अपना वर कु छ धीमा करके कहा“देखती नह हो क च मा म
ब त अिधक प है, इसिलए उस पर काला दाग है और कमल इतना सफे द है, इसिलए
उस पर भ रा बैठा रहता है। आओ, तु हारे भी चेहरे पर कु छ कलंक का िच ह लगा दू।ँ ”
देवदास के सहने क हद ख म हो चुक थी। उसने बंसी क मु ठया घुमा कर पावती के
िसर पर खूब जोर से चोट क िजससे उसके कपाल से लेकर बाय भ तक चमड़ी कट गयी।
पलक झपकते ही उसका सारा मुँह खून से तर हो गया।
पावती जमीन पर लोट पड़ी और बोली“अरे देव दा, यह तुमने या कया!”
देवदास ने बंसी को टु कड़े-टु कड़े करके जल म फकते ए ब त ही ि थर भाव से उ र
दया“ यादा कु छ नह , ब त मामूली, िसफ थोड़ा—सा कट गया है।”
देवदास ने अपने पतले कु रते म से थोड़ी-सी ध ी फाड़ कर और उसे जल म िभगो
कर पावती के िसर पर बाँधते ए कहा“पारो, इसम डर क या बात है! एक दन यह चोट
अ छी हो जायेगी, खाली दाग रह जायेगा। अगर कभी कोई इस बारे म पूछे तो कोई झूठ
बात बना कर कह देना; नह तो सच बोल कर अपने कलंक क बात खुद ही कट कर
देना।”
“अरी मइया री!”
“छी: पारो, ऐसा मत करो। इस अि तम िवदाई के दन के वल थोड़ी-सी याद रखने के
िलए एक िच ह बनाये देता ।ँ ऐसा चाँद-सा मुखड़ा बीच-बीच म शीशे म देखोगी तो
ज र?”
इतना कह कर देवदास उ र क अपे ा कये िबना ही वहाँ से चलने के िलए तैयार
हो गया।
पावती ने आकु ल हो कर रोते ए कहा“अरे , देव दा...”
देवदास लौट पड़ा। उसक आँखो के कोन म एक-एक बूँद जल था। वह ब त ही
ेहपूण वर म बोला“ या है पारो?”
“देखो, कसी से कहना मत।”
देवदास जरा झुक कर खड़ा हो गया और पावती के बाल पर अपने ह ठ टका कर
बोला“छी: पारो, तुम या मेरे िलए कोई पराई हो? तु ह याद नह है क जब तुम
लड़कपन म शरारत करती थ तब मने कतनी बार तु हारे कान मले ह?”
“देव दा, तुम मुझे माफ करो।”
“नह , तु ह यह कहने क ज रत नह । पारो, या तुम सचमुच ही मुझे एकदम भूल
गई हो? मने कब तुम पर ोध कया है और तु ह माफ नह कया है?”
“देव दा...”
“पावती, तुम तो जानती हो क म ब त यादा बात नह कर सकता। ब त सोचसमझ कर भी कोई काम नह कर सकता। जब जो मन म आता है, वही कर बैठता ।ँ ”
इसके बाद देवदास ने पावती के िसर पर हाथ रख कर उसे आशीवाद देते ए
कहा“तुमने अ छा ही कया है। तुम तो शायद मेरे पास रह कर सुख न पात ; ले कन
तु हारे देव दा को तो अ य वगवास ही िमलता।”
इसी समय घाट पर दूसरी तरफ से कोई आ रहा था। पावती धीरे -धीरे उठकर जल म
उतरी और देवदास वहाँ से चला गया। जब पावती लौट कर घर आई, तब दन ढल गया
था। दादी ने िबना उसक ओर अ छी तरह देखे ही पूछा“ य बेटी, या नया तालाब खोद
कर पानी लाई हो?”
ले कन उनके मुँह क बात मुँह म ही रह गई। पावती के मुख क ओर देखते ही वे
िच ला उठ “अरे बाप रे ! यह सवनाश कै से आ?”
घाव म से उस समय भी खून बह रहा था। कपड़े भी खून से लाल हो गये थे। दादी ने
रोते ए कहा“अरी मइया री! पावती, तेरा तो याह है!”
पावती ने ि थर भाव से कलसी उतार कर रख दी। उसक माँ ने आ कर रोते ए
पूछा“पारो, यह सवनाश कै से आ?”
पावती ने सहज भाव से उ र दया“घाट पर पैर फसल जाने से िगर पड़ी थी। ट
लग जाने से माथा कट गया है।”
इसके बाद सब िमल कर उसक मरहम-पट् टी करने लग गय । देवदास ने ठीक ही
कहा था“चोट ब त यादा नह थी। चार ही पाँच दन म घाव सूख गया। और भी आठ दस
दन इसी तरह बीत गये। इसके बाद एक दन रात को हाथीपोता गाँव के जम दार ीयुत
भुवनमोहन वर बन कर िववाह करने आये। उ सव म कु छ अिधक धूम-धाम नह ई। भुवन
बाबू कोई अबोध तो थे नह , ौढ़ अव था म दूसरा याह करने के िलए आये थे, इसिलए
उ ह ने छोकरा बनना ठीक नह समझा।
वर क अव था चालीस बरस से नीचे नह , कु छ ऊपर ही है। गौर वण, मोटे-ताजे,
न द के दुलारे ीकृ ण क तरह का शरीर, िखचड़ी मूँछ, िसर पर सामने क तरफ थोड़ी
दूर के बाल उड़े ए। वर को देख कर कोई तो हँसा और कोई चुप ही रहा। भुवन बाबू शा त
और ग भीर मुख से मानो एक अपराधी क तरह िववाह-मंडप म आकर खड़े ए। छोटी
अव था के वर के कान िजस तरह मले जाते ह और उन पर जो तरह-तरह के अ याचार
होते ह, वे सब उनके साथ िब कु ल नह ए। कारण, ऐसे िव और ग भीर ि के कान
मलने के िलए कसी का हाथ उठा ही नह । वर-वधू का आमना-सामना कराये जाने क
र म के समय पावती कु छ कसमसाती ई देख कर रह गई। उसके ह ठ के कोने पर हँसी
क एक रे खा थी। भुवन बाबू ने लड़क क तरह दृि नीचे कर ली। मुह ले टोले क ि याँ
िखलिखला कर हँस पड़ । च वत महाशय इधर-उधर दौड़-धूप करने लगे। ब दश
जम दार नारायण मुकज लड़क वाल क तरफ से घर के मािलक बने ए ह। प े आदमी
ठहरे , इसिलए उ ह ने कसी तरफ से कसी बात क ु ट न होने दी। िववाह क र म ब त
ही व था के साथ समा हो गय ।
दूसरे दन सबेरे चौधरी महाशय ने जेवर का एक ब सा िनकाल कर दया। पावती
के शरीर पर सज कर वे सब झलमला उठे । पावती क माता ने यह देख कर अपने आँचल से
आँख के कोने प छ िलये। पास ही जम दार-प ी भी खड़ी थ । उ ह ने ेहपूवक िझड़कते
ए कहा“देखो बहन, इस समय रो कर असगुन मत करना।”
स या से कु छ पहले मनोरमा पावती को ख च कर एक िनजन कोठरी म ले गई और
वहाँ उसे आशीवाद देती ई बोली“जो कु छ आ, अ छा ही आ। अब देखना तुम कतने
सुख से रहती हो।”
पावती ने कु छ हँस कर कहा“हाँ, सुख से ही र ग
ँ ी। कल यम के साथ थोड़ा—सा
प रचय हो गया है क नह !”
“ह! यह कै सी बात है?”
“समय आने पर देख लोगी।”
इस पर मनोरमा ने कु छ दूसरी बात छेड़ दी“जी चाहता है क एक बार देवदास को
बुला लाऊँ और यह सोने क ितमा दखलाऊँ।”
पावती च क पड़ी। “ला सकोगी बहन? या एक बार बुला कर नह लाया जा
सकता?”
उसके कं ठ का वर सुन कर मनोरमा िसहर उठी। उसने पूछा—“ य पावती?”
पावती ने अपने हाथ का कड़ा घुमाते ए अनमनेपन से कहा—“एक बार उनके
चरण क धूल अपने म तक पर लगाऊँगी—आज म जा रही ँ न!”
मनोरमा ने पावती को ख च कर गले से लगा िलया और तब दोन िमल कर खूब
रोय । स या हो गई। घर म अँधेरा छा गया। दादी ने बाहर से दरवाजे पर ध ा देते ए
कहा—“अरे पारो, मनो, तुम सब जरा बाहर आओ।”
उसी रात को पावती अपने वामी के घर चली गई।
नवाँ प र छे द
और देवदास? वह रात उसने कलक े के ईडन गाडन क एक बच पर ऊपर बैठ कर
िबतायी। यह बात नह है क उसे ब त अिधक मानिसक क हो रहा था या यातना से
उसका दय फटा जा रहा था। तो भी, न जाने कै सी एक िशिथल उदासीनता धीरे —धीरे
उसके दय म जमा हो रही थी। अगर न द ही म लकवा मार जाये तो फर न द टू टने पर
िजस तरह उस अंग को खोजने क कोिशश पर आदमी का अिधकार नह रहता और च कत
—िवि मत मन ज दी से यह तय नह कर पाता क ज म से उसका साथ िनभाने वाला
और सदा का िव त साथी टटोले जाने पर य उतर नह देता और उसके बाद धीरे —
धीरे यह समझ म आता है क वह अंग अब हमारा नह रह गया है—ठीक उसी तरह
देवदास भी समझता जा रहा था क मेरे संसार को अक मात लकवा मार गया है और अब
उससे सदा के िलए मेरा िव छेद हो गया है । अब उस पर िम या ोध और मान करना
शोभा न देगा। पुराने अिधकार क बात सोचना भी भूल होगी। उस समय सूय दय हो रहा
था । देवदास उठ कर खड़ा हो गया और सोचने लगा क कहाँ जाऊँ? अचानक उसे अपना
कलक े वाला बासा याद आ गया । वहाँ चु ी लाल है। वह उधर ही को चलने लगा। रा ते
म उसने दो बार ध ा खाया; ठोकर खा कर उसने अपनी उँ गली ल —लुहान कर ली;
लड़खड़ा कर एक आदमी के ऊपर िगर रहा था, िजसने शराबी समझ कर उसे धके ल दया।
इस तरह घूमता—घूमता दन के अ त म भटकता आ वह अपने बासे के दरवाजे पर आ
प च
ँ ा। उस समय चु ी लाल सज—धज कर बाहर घूमने के िलए िनकल रहा था। देवदास
को देखकर बोला—“अरे , या देवदास है।“
देवदास चुपचाप देखता रहा।
“कब आये? तु हारा मुँह सूखा आ है। ान, भोजन आ द कु छ नह आ है...अरे यह
या? यह या?”
देवदास रा ते पर ही बैठा जा रहा था। चु ी लाल हाथ पकड़ कर अ दर ले गया।
अपने पलँग पर बैठा कर उसने शा त करके पूछा—“देवदास, आिखर बात या है?”
“कल घर से आया ।ँ ”
“कल? तो फर दन भर कहाँ रहे? और रात भर कहाँ रहे?”
“ईडन गाडन म।”
“ या पागल हो गये हो? आ या है, बतलाओ तो सही।”
“सुन कर या करोगे?”
“न बतलाओ। अ छा पहले खा-पी लो। तु हारा असबाब कहाँ है?”
“कु छ भी साथ नह लाया।”
“अ छा जाने दो। चलो, पहले खा लो।”
उस समय चु ी लाल देवदास को जबरद ती कु छ िखला—िपला कर और अपने
िब तर पर सोने का आदेश दे कर दरवाजा ब द करते ए कहा—“जरा सोने क कोिशश
करो। म रात को आ कर तु ह उठा दूग
ँ ा।”
यह कह कर चु ी लाल उस समय चला गया। रात को दस बजे के लगभग लौट कर
उसने देखा क देवदास िबछौने पर गहरी न द म सो रहा है। उसे जगाये िबना खुद एक
क बल ख च कर चटाई िबछा कर वह सो रहा। सारी रात बीत गई, पर देवदास क न द
नह खुली। यहाँ तक क सबेरा होने पर भी वह नह जागा। दन के दस बजे वह उठ बैठा
और बोला—“चु ी बाबू तुम कब आये?”
“बस, अभी आया ।ँ तु ह कसी तरह क तकलीफ तो नह ई?”
“नह , िबकु ल नह ।”
देवदास ने कु छ देर तक उसके मुँह क ओर देख कर कहा—“चु ी बाबू मेरे पास कु छ
भी नह है। या मेरी कु छ मदद करोगे?”
चु ी लाल हँस पड़ा। वह जानता था क देवदास के िपता ब त बड़े जम दार ह।
इसिलए हँस कर बोला—“म मदद क ँ ? अ छी बात है। जब तक तु हारी इ छा हो, यहाँ
रहो। कोई िच ता क बात नह है।”
“चु ी बाबू तु हारी आमदनी कतनी है?”
“भाई, मेरी आमदनी ब त ही मामूली है। घर पर कु छ जमीन-जायदाद है। उसे अपने
बड़े भाई के पास िगरवी रख कर यहाँ रहता ।ँ वे हर महीने स र पये के िहसाब से मेरे
पास भेज देते ह। इससे तु हारा और मेरा खच मजे म चल जायेगा।”
“तुम घर य नह जाते?”
चु ी लाल ने कु छ मुँह फे र कर—“इसम ब त—सी बात ह।”
देवदास ने फर और कु छ नह पूछा। कु छ देर बाद भोजन के िलए पुकार ई। तब
दोन ान और भोजन समा करके फर कमरे म आ बैठे। चु ी लाल ने पूछा—“ य
देवदास, िपता के साथ कु छ झगडा कया है?”
“नह ।”
“और कसी के साथ?”
देवदास ने फर उसी कार कह दया—“नह ।”
इसके बाद चु ी लाल को सहसा एक और बात याद हो आई! उसने कहा—“ओहो
तु हारा तो अभी तक याह ही नह आ।”
देवदास कु छ कहे िबना दूसरी ओर मुँह फे र कर लेट गया। थोड़ी देर म चु ी लाल ने
देखा क देवदास सो गया है। इस तरह सोते—सोते और भी दो दन बीत गये। तीसरे दन
सबेरे देवदास व थ हो कर उठ बैठा। जान पड़ा क उसके मुख पर से वह काली छाया
मानो ब त कु छ दूर हो गई है। चु ी लाल ने पूछा-“आज शरीर कै सा है?”
“जान पड़ता है क ब त कु छ अ छा है। अ छा, चु ी बाबू, रात को तुम कहाँ जाते
हो?”
आज चु ी लाल कु छ लि त आ। बोला—“हाँ, सो जाता ,ँ ले कन उस बात का
िज य करते हो? अ छा, आजकल तुम कालेज य नह जाते?”
“िलखना—पढ़ना छोड़ दया है।”
“अरे , ऐसा कह होता है! दो महीने बाद तु हारी परी ा है। तु हारी पढ़ाई भी बुरी
नह ई है। इस बार परी ा य नह दे देते?”
“नह , पढ़ना छोड़ दया है।”
चु ी लाल चुप हो गया। देवदास ने फर पूछा—“कहाँ जाते हो? मुझे नह
बतलाओगे? म भी तु हारे साथ चलूँगा।”
चु ी लाल ने देवदास के मुख क ओर देख कहा—“देवदास, तुम या जानो म कोई
अ छी जगह नह जाता।”
देवदास ने मानो मन—ही—मन कहा—अ छी और बुरी थ क बात है। फर बोला
—“चु ी बाबू मुझे अपने साथ न ले चलोगे?”
चु ी लाल ने कहा—“मुझे या द त होगी देव बाबू। फर भी यही क ग
ँ ा क न ही
चलो तो अ छा है।”
“नह , म ज र चलूँगा। अगर अ छा न लगेगा तो फर न जाऊँगा, ले कन तुम तो
सुख क आशा से रोज ही उधर को मुँह कये रहते हो-कु छ भी हो, चु ी बाबू म अव य
चलूँगा।”
चु ी लाल मुँह फे र कर कु छ हँसा और मन—ही—मन बोला, मेरी दशा! फर कट
बोला—“अ छा भाई, चलना।”
तीसरे पहर धमदास सब सामान ले कर आ प च
ँ ा । देवदास को देख कर वह रोने
लगा और बोला—“देव भइया, आज तीन—चार दन से माँ कतना रो रही है।”
“ य भला?”
“तुम िबना कु छ कहेत—
े सुने य चले आये?”
यह कह कर उसने एक प िनकाला और देवदास के हाथ म देकर कहा— यह माँ क
िचट् ठी है।
चु ी लाल भीतरी बात जानने के िलए उ सुक हो कर देखता रहा। देवदास ने प पड़
कर रख दया। माँ ने घर आने के िलए आदेश और अनुरोध कया है । घर भर म के वल वही
ऐसी है िजसने देवदास के अचानक घर से गायब हो जाने के कारण कु छ अनुमान कया था
। उसने धमदास के हाथ चोरी से ब तसे पये भी भेजे थे । धमदास ने उ ह देवदास के हाथ
म देते ए कहा—“देव भइया, घर चलो।’’
“नह , म नह जाऊँगा। तुम लौट जाओ।”
“रात को दोन िम खूब सज—धज कर घर से बाहर िनकले । इन सब बात क ओर
देवदास क वृित तो नह थी, ले कन चु ी लाल कसी तरह एक ही बात पर राजी आ
क बे कु ल मामूली कपड़े पहन कर न चला जाय। रात के नौ बजे के समय कराये क एक
गाड़ी िचतपुर के एक दो—मंिजले मकान के सामने आ कर खड़ी हो गई। चु ी लाल ने
देवदास का हाथ पकड़ कर भीतर वेश कया। मकान माल कन का नाम था च मुखी ।
उसने आ कर वागत कया। अब तो देवदास का सारा शरीर जल उठा। वह खुद नह
जानता था क इधर कई दन से वह िब कु ल अ ात प से नारी शरीर क छाया से भी
िवमुख हो रहा था। च मुखी को देखते ही उसके दय के अ दर िछपी ई बल घृणा
दावाि क तरह भड़क उठी। उसने चु ी लाल क ओर देख कर और भ ह चढ़ाकर कहा
—“चु ी बाबू तुम मुझे कस क ब त जगह म ले आये?”
उसके तीखे वर और दृि से च मुखी और चु ी लाल दोन ही हत बुि हो गये।
दूसरे ही ण चु ी लाल ने अपने आप को सँभालते ए देवदास का एक हाथ पकड़ कर
कोमल वर से कहा—“चलो-चलो, अ दर चल कर बैठ।”
देवदास ने कोई उ र नह दया। वह कमरे के अ दर जा कर जमीन पर िबछे ए
िबछौने पर ब त ही दुखी भाव से िसर झुका कर बैठ गया । च मुखी भी चुपचाप बैठ गई।
नौकरानी चाँदी के े पर तमाखू चढ़ा कर ले आई। देवदास ने उसे छु आ भी नह । चु ी
लाल भी मुँह भारी कये चुपचाप बैठा रहा। नौकरानी क समझ म नह आया क अब म
या क ँ , इसिलए अ त म वह च मुखी के हाथ म ा दे कर चली गई। उसके दो एक
कश ख चने के समय देवदास ने तीखी दृि से उसके चेहरे क ओर देखते ए सहसा ब त
ही घृणा के साथ कहा—“कै सी अस य है! और देखने म कै सी ीहीन मालूम होती है!”
इससे पहले च मुखी को कोई कभी बातचीत म छका नह सका था। उसे अ ितभ
करना ब त ही क ठन काम था, ले कन देवदास क यह आ त रक घृणा से भरी कठोर
ट पणी उसके अ तःकरण के भीतरी भाग तक जा प च
ँ ी। ण भर के िलए वह हत—बुि
—सी हो गई। इसके कु छ ही ण बाद दो—तीन बार े क गुड़गुड़ाहट का श द तो आ,
ले कन च मुखी के मुख से घुआँ बाहर नह िनकला। तब चु ी लाल के हाथ म ा दे कर
उसने एक बार देवदास के चेहरे क ओर देखा। इसके बाद वह चुपचाप बैठी रही। तीन ही
आदमी चुप थे। िसफ े क गुड़गुड़ाहट हो रही थी। ले कन वह भी मानो ब त ही डरते—
डरते। िम —मंडली म कोई तक उठने पर जब अचानक थ का झगड़ा हो जाता है और
सब लोग चुपचाप अपने मन ही मन फू लते रहते ह और ु ध अ तःकरण से झूठ—मूठ
कहते रहते ह—‘यही तो!’ उसी कार वे तीन ही मन—ही—मन कह रहे थे—यही तो!
यह बात कै से हो गई!
िजस कार भी हो, तीन म से कसी को भी शाि त नह िमल रही थी। चु ी लाल
ा रख कर नीचे उतर गया। जान पड़ता है, उसे और कोई काम ढू ँढने पर भी नह िमला।
इसिलए कमरे म दोन आदमी बैठे रहे। देवदास ने िसर उठा कर पूछा—“तुम पये लेती
हो?”
च मुखी सहसा कोई उ र न दे सक । आज उसक अव था चौबीस वष क है। इन
नौ—दस वष म कतने ही िविभ कृ ित वाले लोग के साथ उसका घिन प रचय आ
है; ले कन, ऐसा िवल ण आदमी उसने एक दन भी नह देखा। उसने कु छ इधर—उधर
करके कहा—“आपके चरण क धूल जब मेरे मकान म आ कर पड़ी है...”
देवदास ने बात समा नह करने दी, बीच म ही वह बोल उठा-' 'चरण क बात
नह पूछता। पये लेती हो न?”
“हाँ, लेती य नह । न लूँ तो हम लोग का काम कै से चले?”
“बस, रहने दो, यादा नह सुनना चाहता।”
यह कह कर देवदास ने अपने जेब म हाथ डाल कर एक नोट िनकाला और उसे
च मुखी के हाथ म देते ए चलने को कदम बढ़ाया। यह भी नह देखा क कतने पये का
नोट दया है।
च मुखी ने िवनीत भाव से कहा—“ या इतनी ज दी चले जायगे?”
देवदास ने कोई जवाब नह दया, वह बाहर बरामदे म आ कर खड़ा हो गया।
च मुखी के मन म एक बार आया क ये पये लौटा दू,ँ ले कन न जाने कै से एक
बल संकोच के कारण वह लौटा न सक । जान पड़ता है उसे कु छ भय भी आ। इसके
िसवा उन लोग को अनेक कार क लांछनाएँ, फटकार और अपमान आ द सहने का
अ यास भी होता है, इसिलए वह िनवाक िन म द हो कर चौखट पकड़े खड़ी रही। देवदास
सी ढ़य से नीचे उतर गया।
सीढ़ी पर ही चु ी लाल से भट हो गई। उसने च कत होकर पूछा—“देवदास, कहाँ
जा रहे हो?”
“बासे क तरफ जा रहा ।ँ ”
“यह य ?”
देवदास और भी दो—तीन सी ढ़याँ उतर गया।
चु ी लाल ने कहा—“चलो, म भी चलता ।ँ ”
देवदास ने पास आकर और उसका हाथ पकड़ कर कहा—“चलो।’’
“जरा ठहरो। जरा ऊपर हो आऊँ।’’
“नह । म जाता ,ँ तुम बाद म आ जाना।’’
देवदास चला गया।
चु ी लाल ने ऊपर आ कर देखा क च मुखी तब भी उसी कार चौखट पकड़े खड़ी
है।
उसे देख कर बोली—“तु हारे दो त चले गये?”
“हाँ।”
च मुखी ने अपने हाथ का नोट दखला कर कहा“यह देखो। ले कन अगर ठीक
समझते हो तो लेते जाओ। अपने दो त को लौटा देना।”
चु ी लाल ने कहा“ वह अपनी इ छा से दे गया है। म वापस य ले जाऊँ?” इतनी
देर बाद च मुखी कु छ हँस सक , ले कन उस हँसी म भी आन द नह था। बोली“अपनी
इ छा से नह , बि क हम लोग पये लेते ह इससे नाराज हो कर दे गये ह। य चु ी बाबू
या यह आदमी पागल है?”
“नह , िबकु ल नह । ले कन ऐसा मालूम होता है क आज कई दन से उसका िमजाज
ठीक नह है।”
“कु छ जानते हो य िमजाज ठकाने नह है?”
“नह जानता। शायद घर पर कु छ लड़ाई-झगड़ा आ है।”
“तो यहाँ लाये य ?”
“म तो नह लाना चाहता था, वह खुद ही जबरद ती आया था।”
इस बार च मुखी को सचमुच ही ब त आ य आ। पूछा“खुद ही जबरद ती आये
थे? सब कु छ जान-बूझ कर?”
चु ी लाल ने कु छ सोच कर कहा“और नह तो या, सब कु छ तो जानता है। म कोई
धोखा दे कर थोड़े ही लाया था।”
च मुखी पहले तो कु छ देर तक चुप रही। फर न जाने या सोच कर बोली“चु ी
बाबू, तुम मेरा एक उपकार करोगे?”
“ या?”
“तु हारे िम कहाँ रहते ह?”
“मेरे पास ही।”
“उ ह फर कसी दन यहाँ ला सकते हो?”
“मालूम होता है क नह ला सकूँ गा। इससे पहले भी वह कभी ऐसी जगह नह आया
और शायद अब आगे भी न आयेगा। ले कन उसे य बुलाना चाहती हो?”
च मुखी ने कु छ लान हँसी हँस कर कहा“चु ी बाबू, जैसे भी हो, एक बार बुला कर
उ ह फर ले आओ।”
चु ी लाल हँसा। उसने आँख दबा कर कहा“ या फटकार खा कर ेम जाग गया है?”
च मुखी भी हँसी। बोली“िबना देखे ही नोट देकर चले जाते हइसे नह समझे?”
चु ी लाल च मुखी को ब त-कु छ पहचान गया था। िसर िहला कर बोला“नह
नह । नोट-फोट क लालची और ही होती ह। तुम उनम से नह हो। ले कन असल बात या
है, कहो तो?”
च मुखी ने कहा“सचमुच ही कु छ मोह हो गया है।”
चु ी को िव ास नह आ। हँस कर बोला“बस, इ ह पाँच िमनट के अ दर?”
अब च मुखी भी हँसने लगी। बोली“उसे होने हो। जब उनका मन ठकाने हो, तब
फर एक बार लाना, उ ह फर एक बार देखूँगी। ले आओगे न?
“ या जाने!”
“तु ह, मेरे िसर क कसम।”
“अ छा, देखा जायगा।”
दसवाँ-प र छे द
पावती ने आ कर देखा क उसके वामी का मकान ब त बड़ा है, ले कन वह नये साहबी
फै शन का नह , पुराने ढंग का है। मरदाना महल, जनाना महल, पूजा का दालान, नाटयमि दर, अितिथ शाला, कचहरी, तोशखाना और ब त से दास तथा दािसयाँ ह। पावती
अवाक रह गई। उसने सुना था क वामी ब त बड़े आदमी ह, जम दार ह। ले कन इतना
नह समझा था। अभाव के वल आदिमय का है। नजदीक र तेदार के नाम पर कोई भी
नह है। इतना बड़ा जनाना महल है, ले कन आदिमय से खाली है। पावती अभी याह कर
आई ई लड़क थी, फर भी एकदम से गृिहणी बन गई। उसका वागत करके घर के अ दर
लाने के िलए एक बूढ़ी बुआ थी। उसके अलावा घर म के वल दास-दािसय का ही दल था।
शाम ई तो बीस वष के एक सुशील और सु दर युवक ने आकर णाम करके
कहा“माताजी, म आपका बड़ा लड़का ।ँ ”
पावती ने घूँघट के अ दर से ही उसक ओर जरा-सा देखा, पर कु छ कहा नह । उसने
फर णाम करके कहा“माता जी, म आपका बड़ा लड् का ।ँ णाम करता ।ँ ”
इस बार पावती ने अपना घूँघट म तक तक पीछे हटा कर कोमल वर म कहा“आओ
बेटा, बैठो।”
लड़के का नाम महे था। वह कु छ देर तक अवाक होकर पावती के चेहरे क ओर
देखता रहा। इसके बाद पास ही बैठ गया और िवनीत वर म कहने लगा “आज दो बरस
ए, हम अपनी माँ को खो बैठे ह। इन दो बरस से दुःख और क म ही हम लोग के दन
बीते ह। माँ, आज तुम आ गई। आशीवाद दो, िजससे अब हम लोग सुख से रह।”
पावती ने ब त ही सहज वर म बात क । कारण, एकदम गृिहणी बन जाने पर
ब त-सी बात जानने और कहने क आव यकता होती है। ले कन स भव है क यह कहानी
ब त-से लोग को कु छ अ वाभािवक जान पड़े। पर िजन लोग ने पावती को कु छ यादा
अ छी तरह पहचाना है, वे देखगे क अव था के इन अलग-अलग प रवतन ने पावती को
उसक उ क अपे ा ब त-कु छ प रप कर दया है। इसके अलावा बेकार क ल ाशरम या जड़ता-संकोच उसम कभी था ही नह । उसने पूछा“ य बेटा, मेरे और सब लड़के लड़ कयाँ कहाँ ह?”
महे ने हँस कर कहा“बतलाता ।ँ तु हारी बड़ी लड़क और मेरी छोटी बहन अपनी
ससुराल म है। मने िचट् ठी िलखी थी, ले कन यशोदा कसी तरह न आ सक ।”
पावती ने दुखी हो कर पूछा“आ नह सक , या जान-बूझ कर ही नह आई है?”
महे ने कु छ लि त हो कर कहा“माँ, यह ठीक नह मालूम।”
ले कन उसक बात से और मुख के भाव से पावती ने समझ िलया क यशोदा कु छ
नाराज है और इसिलए नह आई। फर पूछा“और मेरा छोटा लड़का?”
महे ने उ र दया“वह ज दी ही आयेगा, कलक े म है। परी ा होते ही आ
जायेगा।”
भुवन चौधरी अपनी जम दारी का काम-काज खुद ही देखते ह। इसके अलावा खुद ही
रोज अपने हाथ से शािल ाम-िशला क पूजा करना, त, िनयम, उपवास करना और
मं दर और अितिथशाला के साधु-सं यािसय क सेवा करनाइ ह सब तरह-तरह के काम
म सबेरे से रात के दस- यारह बजे तक का उनका सारा समय बीत जाता था। नया िववाह
होने पर भी उनम कसी कार का नवीन आमोद या आ हाद कट नह आ। रात को
कसी दन वे अ दर आते थे और कसी दन नह आ पाते थे। आने पर भी वे ब त ही
मामूली बातचीत करते थे। ब त आ तो पलँग पर लेट जाते थे और गाव त कया ख च कर
आँख ब द करके कहते“तु ह घर क माल कन हो, खुद ही सब कु छ देख-सुन कर समझबूझ कर गृह थी चलाना।”
पावती िसर िहला कर कहती“अ छा।”
भुवन बाबू कहते“और देखो, ये सब लड़के -लड़ कयाँ तु हारी ही ह।”
वामी क ल ा देख कर पावती क आँख के कोने से हँसी फू ट िनकलती थी। वे फर
हँस कर कहते“और देखो, यह महे तु हारा बड़ा लड़का है। अभी हाल म उसने बी०ए०
पास कया है। ऐसा अ छा लड़का है, इतना िवन है! तिनक य और आ मीयता से...”
पावती हँसी रोक कर कहती“हाँ, म जानती ँ वह मेरा बड़ा लड़का है।”
“हाँ हाँ, जानोगी य नह ! ऐसा लड़का कभी कसी ने कह देखा न होगा। और मेरी
यशोमती, लड़क नह ितमा है। वह अव य आयेगी। आयेगी य नह , अपने बूढ़े बाप को
देखने न आयेगी? जब आये, तब उसे...”
पावती उनके पास आ कर मुलायम आवाज़ म कहती“तु ह िच ता करने क
आव यकता नह । यशोदा के िलए म आदमी भेजूँगी“और नह तो महे खुद ही चला
जायेगा।”
“वह जायेगा? जायेगा? अ छा उसे ब त दन नह देखा। तुम आदमी भेजोगी?”
“हाँ, भेजूँगी य नह । मेरी लड़क है, उसे बुलाने के िलए आदमी न भेजूँगी?”
उस समय भुवन महाशय मारे उ साह के उठ बैठते। वे अपना और पावती का स ब ध
भूल कर उसके िसर पर हाथ रख कर आशीवाद देते ए कहते—“तु हारा भला होगा। म
आशीवाद देता ,ँ तुम सुखी होगी, भगवान् तु ह दीघायु करगे।”
उसी समय अचानक न जाने और या- या बात भुवन चौधरी को याद हो आत ।
फर पलँग पर लेट कर आँख ब द करके मन-ही-मन कहते“बड़ी लड़क , एक ही लड़क थी,
वह इसे ब त चाहती थी...”
उस समय उनक िखचड़ी मूँछ के पास से हो कर आँसू क एक बूँद त कये पर आ
पड़ती। पावती उसे प छ देती थी। कभी-कभी वह ब त धीरे से कहते—“आहा, वे सभी
आयगे। फर एक बार सारा घर-बार चमक उठे गा, खूब रौनक होगी। पहले कै सी ब ढ़या
गह थी थी! लड़के थे, लड़क थी, घरवाली थी। खूब हो-ह ला मचा रहता था। मानो रोज
ही दुग सव रहता था। इसके बाद एक दन सब हवा हो गया। लड़के कलक े चले गये,
यशोदा को उसके ससुर आ कर ले गये- फर अ धकार मशान...”
उसी समय फर उनके आँसू बहने शु हो जाते। पावती कातर हो कर आँसू प छ कर
कहती—“महे का याह य नह कर दया?”
भुवन कहते—“आहा, वह मेरे िलए ब त ही सुख का दन होता। मने वही तो सोचा
था। ले कन उसके मन क बात कौन जाने! उसने िजद भी कै सी क , कसी तरह भी याह
नह कया। तभी तो वृ ाव था म...जब सारा घर-बार भायँ-भायँ करता था, भा यहीन
घर क तरह मिलन हो रहा था, मानो ल मी छोड़ कर चली गई हो, कसी तरह कह कु छ
काश दखाई ही नह देता था...यह...”
ये बात सुन कर पावती को ब त दुःख होता था। वह क ण वर से हँसी का बहाना
करके िसर िहला कर कहती—“तुम बूढ़े ए तो म भी ब त ज दी बूढ़ी हो जाऊँगी। औरत
को बूढ़ी होते या यादा देर लगती है?”
भुवन चौधरी उठ कर बैठ जाते और उसक ठोढ़ी पकड़ कर चुपचाप ब त देर तक
उसक तरफ देखते रहते। कारीगर िजस तरह कोई ितमा सजा कर उसके िसर पर मुकुट
पहना कर, उसे दािहने-बाय िहला-डु ला ब त देर तक देखता रहता है और कु छ गव और
ब त- ेह उस सु दर मुख के आसपास एक हो जाता है, ठीक वही दशा भुवन बाबू क भी
होती। कसी- कसी दन उनके मुख से अ फु ट वर म िनकल पड़ता—“हाय हाय, मने
अ छा नह कया...”
“ या अ छा नह कया जी?”
“सोचता ँ तुम यहाँ सोहती नह –”
पावती हँस कर कहती—“खूब सोहती ।ँ हम लोग के िलए भला सोहना न सोहना
या!”
भुवन महाशय फर लेट कर मानो मन-ही-मन कहते—“हाँ, सो म समझता ँ
समझता ।ँ ले कन तु हारा भला होगा। भगवान् तु ह देखगे।”
इस कार लगभग एक महीना बीत गया। बीच म एक बार च वत महाशय अपनी
क या को लेने के िलए आये, ले कन पावती खुद ही अपनी इ छा से नह गई। उसने िपता
से कहा—“बाबूजी, ब त ही क ी अ वि थत गृह थी है। और कु छ दन ठहर कर
आऊँगी।”
वे इस तरह मु कराये िजसम पावती न लख सके और मन-ही-मन बोले— “ि य क
जाित ही ऐसी होती है!”
उनके िवदा हो जाने पर पावती ने महे को बुला कर कहा—“बेटा, तुम एक बार
जाकर मेरी बड़ी लड़क को ले आओ।”
महे ने कु छ इधर-उधर कया। वह जानता था क यशोदा कसी तरह न आयेगी।
उसने कहा—“अगर बाबूजी एक बार जाय तो अ छा हो।”
“िछ:। यह या अ छा दीखेगा? इससे अ छा तो यह है क हम दोन माँ बेटे चल कर
उसे ले आय!”
महे को आ य आ—“तुम चलोगी?”
“हज ही या है बेटा? मुझे इसम कोई ल ा नह है। अगर मेरे जाने से यशोदा आये,
उसक नाराजगी दूर हो जाय तो मेरा जाना या कोई बड़ी बात है?”
इस बातचीत के बाद महे दूसरे दन अके ला ही यशोदा को लाने के िलए चला
गया। यह तो नह मालूम क वहाँ जा कर उसने या कौशल कया, ले कन चार दन के
बाद ही वह यशोदा को ले कर आ प च
ँ ा। उसी दन पावती के अंग पर िविच नये और
ब मू य अलंकार थे। अभी कु छ ही दन पहले भुवन बाबू ने कलक े से मँगवा दये थे।
पावती आज वही सब पहन कर बैठी थी। यशोदा रा ते म मन-ही-मन ोध और अिभमान
क ब त-सी बात को उलटती-पलटती ई आ रही थी। ले कन नई ब को देख कर वह
एकदम से अवाक हो गई— िव ष
े क वे सब बात उसे याद ही नह आई। िसफ अ कु ट
वर म बोली—“यही है !”
पावती यशोदा का हाथ पकड़ कर अ दर ले गई। पास िबठा कर और हाथ म पंखा ले
कर बोली—“बेटी, अपनी माँ से कु छ नाराज हो?”
यशोदा का मुख मारे ल ा के लाल हो गया। इसके बाद पावती अपने वे सब गहने
एक-एक करके यशोदा को पहनाने लगी। िवि मत यशोदा ने कहा—“यह या?”
“कु छ नह , िसफ तु हारी माँ क साध है।"
गहने पहनना यशोदा को कु छ बुरा नह मालूम आ; और जब वह सब गहने पहन
चुक तब उसके ह ठ पर हँसी का आभास दखाई दया। उसके सम त अंग म अलंकार
पहना कर पावती ने फर कहा—“बेटी, अपनी माँ पर कु छ नाराज हो?”
“नह -नह , नाराज य होने लगी? नाराजगी कै सी?”
“और नह तो या बेटी, यह तु हारे िपता का घर है। बड़ा घर ठहरा कतने ही
नौकर-नौकरािनय क ज रत होती है। म भी तो एक दासी के िसवा और कु छ नह ।ँ
छी: बेटी, तु छ दास-दािसय पर नाराज होना या तु ह शोभा देता है?”
यशोदा उमर म तो बड़ी थी, ले कन बातचीत करने म अब भी ब त छोटी थी। वह
िव वल हो गई। उसे पंखे से हवा करते-करते पावती ने फर कहा—“म गरीब दुिखया क
लड़क ।ँ तुम लोग क दया से यहाँ थोड़ा-सा थान िमला है। न जाने कतने दीन, दुःखी
और अनाथ तुम लोग क दया से यहाँ रोज आसरा पाते ह, पलते ह। म भी तो बेटी, उ ह
म से एक ।ँ जो आि त...”
यशोदा अिभभूत होकर सब बात सुन रही थी। अब वह एकदम से आ म-िव मृत हो
गई और उसके पैर पर िगर कर णाम करती ई बोली—“माँ, म तु हारे पैर पड़ती ।ँ ”
पावती ने उसका हाथ पकड़ िलया। यशोदा ने कहा—“मेरे अपराध पर यान न
देना।”
दूसरे दन महे ने यशोदा को एका त म बुला कर पूछा—“ य , तु हारा गु सा कु छ
कम आ?”
यशोदा ने ज दी से अपने भाई के पैर पर हाथ रख कर कहा“भइया, मने गु से म
आकर, छी: छी:, न जाने या- या कहा है। देखो, सब बात जािहर न होने पाय।”
महे हँसने लगा। यशोदा ने कहा“ य भइया, सौतेली माँ भी इतना आदर कर
सकती है?”
दो दन बाद यशोदा ने िपता के पास प च
ँ कर खुद ही कहा“बाबूजी, तुम वहाँ िचट् ठी
िलख दो। म अभी दो महीने यह र ग
ँ ी।”
भुवन बाबू ने कु छ िवि मत हो कर पूछा“ य बेटी?”
यशोदा ने शरमा कर कु छ हँसते ए कहा“मेरा शरीर कु छ ठीक नह है। अभी म कु छ
दन तक छोटी माँ के पास ही र ग
ँ ी।”
चौधरी बाबू क आँख म खुशी के आँसू आ गये। उ ह ने शाम के समय पावती को
बुला कर कहा“तुमने मुझे बड़ी भारी ल ा से मुि दी है। जीती रहोसुख से रहो।”
पावती ने पूछा“यह या?”
“इसका मतलब तो म तु ह नह समझा सकता। हे नारायण, तुमने कतनी ल ा और
कतनी लािन से मुझे छु टकारा दलाया है!”
शाम के झुटपुटे म पावती ने यह नह देखा क उनक आँखो म आँसू आ गये ह। और
भुवन बाबू का छोटा लड़का िवनोद लाल। वह परी ा दे कर घर आया और फर लौट कर
पढ़ने नह गया।
यारहवाँ प र छे द
च मुखी के यहाँ हो आने के बाद देवदास दो-तीन दन तक य ही इधर-उधर सड़क पर
घूमता रहाब त—कु छ पागल क तरह। धमदास ने एक दन कु छ कहना चाहा तो वह
आँख लाल करके उस पर िबगड़ पड़ा। यह रं ग-ढंग देख कर चु ी लाल को भी उससे कु छ
कहने का साहस नह आ। धमदास ने रो कर कहा—“चु ी बाबू इनक हालत य ऐसी
हो गई है?”
चु ी लाल ने पूछा—“धमदास, आिखर आ या है?”
मानो एक अ धे ने दूसरे अ धे से रा ता पूछा। अ दर का हाल दोन म एक भी नह
जानता था। आँख प छते ए धमदास ने कहा—“चु ी बाबू चाहे िजस तरह हो, देवदास
को उसक माँ के पास भेज दीिजए। जब इ ह कु छ िलखना-पढ़ना है ही नह तो फर यहाँ
रह कर या करगे?”
बात िब कु ल ठीक थी। चु ी लाल सोचने लगे। चार-पाँच दन बाद एक रोज चु ी
बाबू ठीक उसी तरह स या के समय बाहर जा रहे थे क देवदास ने न जाने कहाँ से आ कर
उनका हाथ पकड़ कर कहा—“चु ी बाबू, वह जा रहे हो?”
चु ी लाल ने कु छ िखिसया कर कहा—“हाँ, कहो तो न जाऊँ।”
देवदास ने कहा—“नह , म तु ह जाने के िलए मना नह करता। ले कन एक बात
बतलाओ। तुम वहाँ कस आशा से जाते हो?”
“आशा और या है? य ही समय िबताने चला जाता ।ँ ”
“ या वहाँ समय बीत जाता है? म भी तो इसी रोग का मारा ,ँ मेरा समय भी नह
बीतता। म भी समय िबताना चाहता ।ँ ”
चु ी लाल कु छ देर तक उसके मुँह क ओर देखता रहा। जैसे दय का भाव उसके
मुख पर पढ़ने क चे ा कर रहा हो। इसके बाद बोला—“देवदास, तु ह या हो गया है?
खुल कर बतला सकते हो?”
“कु छ भी तो नह आ।”
“बतलाओगे नह ?”
“नह चु ी बाबू, बतलाने लायक कोई बात ही नह है।”
चु ीलाल ब त देर तक िसर नीचा कये रहने के बाद बोला—“देवदास, एक बात
मानोगे?”
“ या?”
“तु ह एक बार फर वहाँ चलना होगा। म जबान दे आया ।ँ ”
“उस दन जहाँ गये थे वह न?”
“हाँ।”
“छी:, मुझे अ छा नह लगता।”
“म ऐसा इ तजाम कर दूग
ँ ा क तु ह अ छा लगे।”
देवदास ने कु छ देर तक अ यमन क क तरह चुप रह कर अ त म कहा—“अ छा,
चलो चल।”
देवदास को अवनित क एक सीढ़ी नीचे उतार कर चु ी लाल न जाने कहाँ िखसक गया है।
अके ला देवदास च मुखी के कमरे म फश पर बैठा आ शराब पी रहा है। पास ही बैठी ई
च मुखी उदास हो कर उसे देख कर डरते ए बोल उठी—“देवदास, अब और मत िपयो।”
देवदास ने शराब का िगलास जमीन पर रख कर भौह टेढ़ी करके पूछा—“ य ?”
“अभी कु छ ही दन से शराब पीने लगे हो। इतनी अिधक बरदा त न कर सकोगे।”
“बरदा त करने के िलए शराब नह पीता। िसफ इसिलए पीता ँ क यहाँ रह सकूँ ।”
यह बात च मुखी कई बार सुन चुक है। अ सर उसके जी म आया है क दीवार पर
िसर पटक कर र क गंगा बहा कर मर जाऊँ। देवदास से वह ेम करने लग गई थी।
देवदास ने शराब का िगलास दूर फक दया। सोफे के पाये म लग कर वह चूर-चूर हो गया।
फर लेट कर और त कये का सहारा ले कर उसने लड़खड़ाती ई जबान से कहा—“मुझम
उठ कर जाने क ताकत नह है, इसिलए यहाँ बैठा रहता ।ँ अ छे-बुरे का होश नह रह
जाता, इसिलए तु हारे मुँह क ओर देख कर बात करता ।ँ तो भी म िब कु ल बेहोश नह
होता—तो भी कु छ होश रहता है, इसिलए तु ह छू नह सकता। ब त घृणा होती है,
च मुखी।”
च मुखी ने अपनी आँख प छ कर धीरे -धीरे कहा—“देवदास, यहाँ ऐसे ब त-से लोग
आते ह जो कभी शराब छू ते भी नह ।”
देवदास आँख फाड़कर उठ बैठा। उसने लड़खड़ाते ए इधर-उधर हाथ फक कर कहा
—“छू ते तक नह ? अगर ब दूक होती तो म उ ह गोली मार देता। च मुखी, वे लोग तो
मुझसे भी बड़े पापी ह।”
कु छ देर तक चुप रह कर वह फर न जाने या सोचने लगा। इसके बाद उसने फर
कहा—“अगर मने कभी शराब पीना छोड़ा, हाला क म छोड़ूग
ँ ा नह , तो फर म यहाँ कभी
नह आऊँगा। मेरे िलए तो उपाय है, ले कन उन लोग क या दशा होगी?”
कु छ देर तक ठहर कर उसने आगे कहा—“मने ब त ही दुखी होकर शराब पीना शु
कया है। हे मेरी िवपि और दुःख क सािथन! म तुझे नह छोड़ सकता।”
देवदास त कये पर अपना मुँह रगड़ने लगा। च मुखी ने ज दी से पास आ कर उसका
मुँह पकड़ कर ऊपर उठाया। देवदास ने भ ह तान कर कहा—“छी:, मुझे छु ओ मत। अब भी
मुझे होश है। च मुखी, तुम नह जानत , िसफ म ही जानता ँ क म तुम लोग से घृणा
करता ।ँ सदा घृणा करता र ग
ँ ा। फर भी आऊँगा, फर भी बैठँू गा, फर भी बात क ँ गा।
नह तो, इसके िसवा और कोई उपाय जो नह है! यह बात या तुम लोग समझोगी? हाहा-हा! संसार म ऐसा उपयु
थान कौन-सा है? और तुम सब...”
देवदास दृि संयत करके कु छ देर तक उसके दुखी मुख क ओर देखता रहा और बोला
—“आहा! तुम सहनशीलता क सजीव मू त हो! ि य को लांछना, भ सना, अपमान,
अ याचार और उप व— कतना कु छ सहना पड़ता है, तु ह सब इसक िमसाल हो!”
इसके बाद वह िचत हो कर लेट गया और चुपचाप कहने लगा—“च मुखी कहती है
क म तु ह यार करती ।ँ ले कन म नह चाहता, नह चाहता। लोग नाटक करते ह, मुँह
पर कािलख और चूना मलते ह, चोर बनते ह, भीख माँगते ह, राजा बनते ह, रानी बनते ह,
ेम करते ह, ेम क न जाने कतनी बात करते ह, न जाने कतना रोते ह, ऐसा मालूम
होता है क जैसे सब सच ही है। च मुखी मेरा नाटक करती है और म देखता ।ँ ले कन
उसक ब त याद आती है। ण भर म मानो सब कु छ हो गया। वह कहाँ चली गई और म
कस रा ते पर चल पड़ा। अब पूरे जीवन भर चलने वाला िवराट अिभनय शु
आ है—
एक भारी शराबी और यह एक...अ छा होने दो, यही होने दो। बुरा या है! आशा नह ,
भरोसा नह , सुख भी नह और साध भी नह । वाह! ब त अ छा!”
इसके बाद देवदास करवट बदल कर न जाने या बड़बड़ाने लगा। च मुखी उसका
कु छ भी मतलब न समझ सक । थोड़ी देर म देवदास सो गया। उस समय च मुखी पास आ
कर बैठ गई। उसने आँचल िभगो कर देवदास का मुँह प छ दया और भीगा आ त कया
बदल दया। फर एक पंखा ले कर कु छ देर तक उसे झलती रही और ब त देर तक िसर
नीचा कये बैठे रही। उस समय रात का लगभग एक बज गया था। वह दीया बुझा कर और
दरवाजा ब द करके दूसरे कमरे म चली गई।
बारहवाँ प र छे द
दोन भाई ि जदास और देवदास और गाँव के ब त-से लोग जम दार नारायण मुखज का
अि तम सं कार करके लौट आये। ि जदास खूब िच ला-िच ला कर रो रहा है, उसक दशा
पागल क -सी हो गई है। मुह ले के दस-पाँच आदमी िमल कर भी उसे पकड़े नह रख
सकते। देवदास शा त भाव से एक ख भे के पास बैठा आ है। न तो उसके मुख से एक श द
ही िनकलता है और न उसक खो म एक बूँद आँसू है। न तो कोई उसे पकड़ता है और न
सा वना देने का ही य करता है। मधुसूदन घोष एक बार उसके पास जा कर कहने लगे
—“हाँ भइया, तकदीर के आगे...”
देवदास ने ि जदास क ओर उँ गली दखला कर कहा—“यह सब आपको वहाँ कहना
है...”
घोष महाशय अ िभत हो कर बोले—“हाँ, सो वे कतने बड़े शोक...” और फर ऐसी
ही बात कहते-कहते वे वहाँ से िखसक गये। फर और कोई पास नह आया। दोपहर बीत
जाने पर देवदास अपनी अ मू छत माता के पैर के पास जा बैठा। वहाँ उसे ब त-सी
औरत घेरे ए बैठी ह। पावती क दादी भी वहाँ मौजूद है। उसने भरे ए गले से देवदास
क माँ से कहा—“ब जरा देखो तो, देवदास आया है।”
देवदास ने पुकारा—“माँ!”
उ ह ने एक बार देख कर कहा—“बेटा!”
इसके बाद फर उनक मुँदी ई आँख के कोन से अ ु क अज धारा बहने लगी।
ि य का दल भी हाय-हाय करके रोने-धोने लगा। देवदास कु छ देर तक अपनी माता के
चरण म मुँह िछपाये बैठा रहा। इसके बाद उठ कर धीरे -धीरे अपने िपता के कमरे क ओर
चला गया। उसक आँख म जल नह , चेहरा ग भीर तथा शा त है। अपनी लाल आँख
ऊपर क ओर गड़ा कर जमीन पर बैठ गया। ऐसा मालूम होता है क अगर उस समय उसे
कोई देख लेता तो अव य ही डर जाता—कपाल के दोन ओर क नस फू ल रही ह और बड़ेबड़े खे बाल खड़े हो रहे ह। तपाये ए सोने के -से वण पर मानो कािलख पुत गई है। एक
तो कलक े का जघ य अनाचार, फर यह देर रात तक जागना और ितस पर िपता क
मृ यु! िजसने आज से साल-भर पहले उसे देखा था, जान पड़ता है, वह शायद इस समय
उसे देख कर सहसा पहचान भी न पाता। कु छ देर बाद पावती क माँ ढू ँढती ई दरवाजा
खोल कर अ दर आई।
“देवदास!”
“ या है चाची?”
“बेटा, इस तरह तो काम नह चलेगा।”
देवदास ने उसके मुख क ओर देख कर कहा—“ य , मने या कया है चाची?”
चाची जानती तो थी या कया है, ले कन कोई उ र न दे सक । उसने देवदास का
िसर ख च कर अपनी गोद म कर िलया और कहा—“देवता बेटा!”
“ या चाची?”
“देवता बेटा!”
देवदास ने उसक छाती म मुँह गड़ाया तो उस समय उसक आँख से एक बूँद आँसू
टपक गया।
दुखी-से-दुखी प रवार के दन भी कट जाते ह। धीरे -धीरे दूसरे दन का सबेरा आ।
रोना-धोना भी ब त-कु छ कम हो गया। ि जदास का मन अब िब कु ल ठकाने आ गया है।
उनक माँ भी अब उठ कर बैठ गई ह और आँख प छती ई दन के काम कर रही ह। दो
दन के बाद ि जदास ने देवदास को बुला कर कहा—“देवदास, िपताजी के ा म कतना
खच करना उिचत होगा?”
देवदास ने बड़े भाई के मुख क ओर देख कर कहा—“जो कु छ आप उिचत समझ।”
“नह भाई, िसफ मेरे समझने से ही काम नह चलेगा। तुम भी बड़े ए हो, तु हारी
राय लेना ज री है।”
देवदास ने पूछा—“नगद पये कतने ह?”
िपताजी के िहसाब म डेढ़ लाख पये जमा ह। मेरी समझ म दसेक हजार खच करना
काफ होगा। तु हारी या राय है?”
“मुझे उसम से कतना िमलेगा?”
ि जदास ने कु छ इधर-उधर करने के बाद कहा—“तु ह भी उसम से आधा िमल
जायगा। तु हारे स र हजार और मेरे स र हजार पये बाक रहगे।”
“माँ को या िमलेगा?”
“माँ नगद ले कर या करगी? वे तो घर क माल कन ह ही। हम लोग उनका खच
चलायगे।”
देवदास ने कु छ सोच कर कहा—“म समझता ँ क आपके िह से के तो पाँच हजार
पये खच ह और मेरे िह से के पचीस हजार। अपने बाक पचास हजार पय म से म
पचीस हजार लूँगा और बाक पचीस हजार माँ के नाम से जमा रहगे। आपक या राय
है?”
पहले तो ि जदास मानो कु छ लि त आ, पर बाद म उसने कहा, “अ छी बात है।
मेरे तो, जानते हो, ी, पु और क या है। उनका याह, जनेऊ वगैरह करना होगा। ब तसे खच ह। इसिलए यही राय ठीक है।” फर कु छ क कर बोला, “तो फर इसक िलखापड़ी हो जाय।”
“िलखा-पढ़ी होने क ज रत है? वह देखने म अ छी नह मालूम होगी। म चाहता ँ
क पये-पैसे क बात इस समय चुपचाप ही हो जाय।”
“अ छी बात है। ले कन भाई, शायद फर...”
“अ छा, म िलख ही देता ।ँ ”
उसी दन देवदास ने िलखा-पड़ी कर दी।
दूसरे दन दोपहर को देवदास नीचे उतर रहा था। सी ढ़य के पास ही पावती को देख
कर ठठक गया। पावती ने उसके चेहरे क ओर देखा। पहचानने म उसे मानो कु छ द त
हो रही थी। देवदास ने ग भीर शा त भाव से पूछा“कब आय पावती?”
वही क ठ वर! आज तीन बरस के बाद भट ई है। पावती ने िसर झुका कर
कहा“आज सवेरे आई ।ँ ”
“ब त दन से भट नह ई। खूब अ छी तरह थ ?”
पावती ने िसर िहला दया।
“चौधरी बाबू अ छी तरह ह? लड़के -ब े सब मजे म?”
“सब लोग अ छी तरह ह।”
पावती ने एक बार उसक ओर देखा, ले कन वह नह पूछ सक क तुम कै से हो और
या करते हो। अब तो इस कार का
ही ठीक नह लगता था।
देवदास ने पूछाअभी कु छ दन रहोगी न?
“हाँ।”
“तब तो ठीक है...”
यह कह कर देवदास बाहर चला गया।
ा का सब कारज पूरा हो गया। उसका वणन कया जाय तो ब त कु छ िलखना
पड़ेगा, इसिलए उसक कोई आव यकता नह । ा के दूसरे दन पावती ने धमदास को
एका त म बुला कर और उसके हाथ म सोने का एक हार देख कर कहा“धम, यह हार तुम
अपनी लड़क को पहनने के िलए देना।”
धमदास ने उसके मुख क ओर देख कर अपनी सजल आँख को और भी अिधक नम
करके कहा“आहा, तु ह ब त दन से नह देखा! और सब हाल-चाल ठीक है िब टया?”
“हाँ, सब ठीक है! तु हारे लड़के -ब े तो अ छे ह?”
“हाँ, सब अ छे ह।”
“तुम अ छी तरह हो?”
अब क बार धमदास ने ल बी साँस छोड़ कर कहा“खाक अ छा !ँ अब तो मेरा भी
चल देने को जी चाहता है। मािलक तो चले ही गये।”
शोक के आवेग म धमदास न जाने और कतनी बात कहता, ले कन पावती ने उसम
बाधा डाल दी। ये सब बात सुनने के िलए उसने हार नह दया था।
पावती ने बीच म ही रोक कर कहा“धमदास, यह तुम या कहते हो? तुम नह रहोगे
तो देवदास को कौन देखेगा?”
धमदास ने अपना माथा ठ क कर कहा“जब ब े थे, तब देखता था। अब तो इसी म
भलाई है पारो, क उ ह न देखना पड़े।”
पावती ने कु छ और पास आ कर पूछा“धमदास, एक बात सच-सच बतलाओगे?”
“बतलाऊँगा य नह िब टया!”
“अ छा तो ठीक-ठीक बतलाओ क देव दा अब या करते ह?”
“मेरा िसर करते ह?”
“धमदास, साफ-साफ बतलाओ न!”
धमदास ने फर माथा ठ कते ए कहा“िब टया, म साफ-साफ और या बतलाऊँ! वे
सब या कहने क बात ह! अब मािलक तो ह नह और देवता के हाथ अगाध पये आ गये
ह। अब तो मुि कल ही है।”
पावती का मुख एकदम फ का पड़ गया। उसने कु छ उड़ती ई बात सुनी थ । त ध
हो कर उसने कहा“धमदास, तुम कह या रहे हो?”
उसने मनोरमा के प म जब कु छ बात पड़ी थ तब वह िव ास न कर सक थी।
धमदास िसर िहला कर कहने लगा“न खाना है और न सोना है। िसफ बोतल-बोतल शराब।
तीन-तीन चार-चार दन तक न जाने कहाँ पड़े रहते ह, कोई ठकाना नह । न जाने कतने
पये उड़ा दये। सुनता ँ क कई हजार पय का तो उसे खाली गहने बनवा दये ह।”
पावती िसर से पैर तक काँप उठी“धमदास, या यह बात सच है?”
धमदास अपनी धुन म कहता गया“शायद वे तु हारी बात मान ल। तुम एक बार उ ह
मना करो। कै सा शरीर था और अब कै सा हो गया है! इस तरह के अ याचार से कतने दन
जीते रहगे? और अब ये सब बात कससे क ?ँ माँ, बाप, भाई,—इन सबसे तो यह बात
कही नह जा सकती!”
कु छ ठहर कर धमदास बार-बार माथा ठ कते ए कह उठा“पावती,
जी चाहता है क िसर पटक कर मर जाऊँ। अब जीने क साध नह रही।”
पावती उठ कर चली गई। नारायण बाबू क मृ यु का समाचार सुन कर वह दौड़ी
आई थी। सोचा था क इस िवपि के समय एक बार देवदास के पास जाना उिचत है।
ले कन यहाँ उसके इतने साधू देव दा क यह हालत हो रही है! उसे इतनी अिधक बात याद
आने लग , िजनक कोई सीमा नह । िजतने िध ार उसने देवदास को दये, उससे हजार
गुने अिधक अपने आपको दये। हजार बार उसे यह खयाल आया क अगर म होती तो या
कभी ऐसा हो सकता था? पहले उसने अपने हाथ से अपने पैर पर कु हाड़ी मारी थी;
ले कन, अब वह कु हाड़ी उसके िसर पर पड़ी। उसी के देव दा क तो यह हालत होती जा
रही हैवह इस कार न हो रहा है और वह खुद दूसरे क गृह थी का भला करने के फे र म
पड़ी ई है! दूसरे को अपना समझ कर वह रोज अनाज बाँट रही है और खुद उसका सव व
आज भोजन िबना मर रहा है! पावती ने ित ा क क आज म देवदास के पैर पर अपना
िसर पटक कर ाण दे दूग
ँ ी।
अभी स या होने म कु छ देर थी। पावती देवदास के घर प च
ँ कर उसके कमरे म
दािखल ई। देवदास पलँग पर बैठा आ िहसाब देख रहा था। उसने िसरउठा कर देखा।
पावती धीरे से दरवाजा ब द करके जमीन पर बैठ गई। देवदास िसर उठा कर हँसा। उसका
चेहरा उदास, मगर शा त था। उसने हँसी करते ए कहा“अगर म तु ह बदनाम क ँ तो?”
पावती ने अपनी सजल आँख एक बार उसक ओर उठा कर फर तुर त ही झुका ल ।
उसने पल-भर म ही समझा दया क वह बात मेरे कलेजे म सदा के िलए तीर क तरह चुभ
गई है; अब और य ? वह ब त-सी बात कहने के िलए आई थी, ले कन सब भूल गई।
देवदास के पास आ कर वह बात नह कर सकती। देवदास फर हँस पड़ा और
बोला“समझ गया, समझ गया पारो। य , शम आती है न?”
ले कन फर भी पावती कोई बात न कर सक । देवदास कहने लगा“इसम शम क
कौन-सी बात है? दो जने िमल कर एक लड़कपन कर डालते ह, देखो, बीच म कै सा
गोलमाल हो गया! ोध म आकर तुमने जो चाहा वह कह डाला; मने भी माथे पर यह
िनशान बना दया। य कै सा आ!”
देवदास क इन बात म जरा भी हँसी या ं य नह था। उसने स हो कर हँसतेहँसते अतीत के दुःख क कहानी कह सुनाई थी। ले कन पावती क छाती फटने लगी। उसने
मुँह म कपड़ा दे कर और साँस रोक कर मन-ही-मन कहादेव दा, यह िनशान ही मेरे िलए
सा वना है, यही मेरा संबल है! तुम मुझसे ेह करते थे, इसिलए तुमने हम लोग के
बचपन का इितहास ललाट पर िलख दया है। यह मेरे िलए शम नह , कलंक नह , बि क
गौरव क चीज है।
“पारी!”
अपने मुँह पर से आँचल हटाये िबना ही पावती ने कहा“ या?”
“तुम पर मुझे ब त गु सा आता है...”
अब देवदास का कं ठ वर िवकृ त होने लगा। उसने कहा“बाबूजी नह रहे, यह मेरे
िलए कतने अिधक दुःख का दन है। ले कन अगर तुम होत तो फर या िच ता थी! बड़ी
ब को तुम जानती ही हो। दादा का वभाव भी कु छ िछपा नह है। भला बतलाओ, इस
समय म माँ को ले कर या क ँ ! फर भी या होगा, कु छ समझ म नही आता। तुम होत
तो िनि त होकर सब-कु छ तु हारे हाथ म स प कर...अरे , अरे , पारो, यह या?
पावती िससक-िससक कर रो रही थी। देवदास ने कहा“शायद तुम रो रही हो। अ छा
तो जाने दो, यह बात यह ख म हो गई।”
पावती ने आँख प छते ए कहा“नह , कहो, कहो।”
देवदास ने ण-भर म ही अपना कं ठ- वर साफ करके कहा“पारो, तुम तो खूब प
गृहि थन हो गई हो!”
अ दर-ही-अ दर पावती ने अपने ह ठ चबाये और मन म कहा-खाक गृहि थन ई !ँ
कह सेमल का फू ल भी देव-सेवा के काम आता है?
देवदास हँस पड़ा और हँसते ए बोला“मुझे ब त हँसी आती है। तुम जरा-सी थ , अब
कतनी बड़ी हो गई हो! खूब बड़ा मकान, ब त बड़ी जम दारी, बड़े-बड़े लड़के -लड़ कयाँ,
और चौधरी महाशयसभी बड़े ह, य पारो?” चौधरी महाशय का यान आते ही पावती
को हँसी आने लगती थी। इतने दुःख के समय म भी इसी से उसे हँसी आ गई। देवदास ने
नकली ग भीरता के साथ कहा—“एक उपकार कर सकती हो?”
पावती ने िसर उठा कर पूछा“ या?”
“तु हारी तरफ कोई अ छी लड़क िमल सकती है?”
पावती ने थूक घ ट कर और खाँस कर पूछा“अ छी लड़क ? या करोगे?”
“िमल जाय तो याह कर लूँ। जी चाहताहै क एक बार गृह थ बन जाऊँ।”
पावती ने बडे-बुजुग क तरह पूछा“खूब सु दरी चािहए न?”
“हाँ, तु हारी तरह।”
“और खूब भली मानस हो?”
“नह , ब त भली मानस क ज रत नह । बि क दु हो; तु हारी ही तरह; जो मेरे
साथ झगडा कर सके ।”
पावती ने मन-ही-मन कहानह देव दा, यह तो कसी ने न हो सके गा, य क उसको
मेरे जैसा यार कर सकना चािहए। फर-ऊपर से कहा“म जलमुँही, मेरे जैसी न जाने
कतनी हजार तु हारे पैर म आ कर अपने आपको ध य समझगी।”
“देवदास ने मजाक करते ए हँस कर कहा“हजार या क ँ गा, मुझे तो एक ही
चािहए, बोलो।”
“मजाक छोड़ो देव दा, सच बताओ। या तुम सचमुच याह करना चाहते हो?”
“कहा तो।”
देवदास ने िसफ यही बात खुल कर नह कही क तु ह छोड़ कर इस जीवन म और
कसी ी क ओर मेरा झुकाव नह होगा।
“देव दा, एक बात क ?ँ ”
“ या?”
पावती ने अपने आपको सँभालते ए कहा“तुमने शराब पीना य सीखा?”
देवदास हँस पड़ा। बोला“ या कसी चीज का खाना-पीना भी सीखना होता है?”
“यह नह ; तुमने उसक आदत य डाली?”
“ कसने कहा यह? धमदास ने?”
“चाहे कोई कहे, या यह सच है?”
देवदास ने बात िछपाई नह । कहा“हाँ, ब त कु छ ठीक है!”
पावती कु छ देर तक त ध होकर बैठ रही। फर बोली“और उसे कतने हजार के
गहने बनवा दये ह?”
देवदास ने हँस कर कहा“अभी दये नह ह, िसफ बना कर रखे ह। तुम लोगी?”
पावती ने हाथ बढ़ाकर कहा“लाओ, दो। यह देखो, मेरे शरीर पर एक भी गहना नह
है।”
“चौधरी महाशय ने नह दये तु ह?”
“ दये थे, ले कन मने वे सब उनक बड़ी लड़क को दे दये।”
“तु ह शायद उनक ज रत नह है?”
पावती ने िसर िहला कर मुँह नीचा कर िलया। अब क बार सचमुच ही देवदास क
आँखो म पानी भर आया। अपने मन म उसने समझ िलया क कसी मामूली दुःख म ि याँ
अपना गहना उतार कर कसी को नह दे देत , ले कन सुि थर हो कर उसने धीरे से
कहा“झूठ बात है पारो, म कसी भी ी को ेम नह करता, कसी को भी मने गहने नह
दये।”
पावती ने ठं डी साँस लेकर मन-ही-मन कहा-मेरा भी यही िव ास था। उसके बाद
पावती ने कहाले कन, इस बात क ित ा करो क अब कभी शराब नह िपयोगे।”
“नह , यह मुझसे नह हो सकता। या तुम ित ा कर सकती हो क कभी एक बार
भी मुझे याद नह करोगी?”
पावती ने कोई जवाब नह दया। इसी समय बाहर स या क शंख विन ई।
देवदास ने च कत हो कर िखड़क म से बाहर क ओर देखते ए कहा—“स या हो गई।
अब तुम घर जाओ पारो!”
“नह , म नह जाऊँगी। पहले तुम ित ा करो।”
“यह मुझसे नह हो सकता।”
“ य नह हो सकता।”
“ या सभी लोग सब काम कर सकते ह?”
“इ छा करने पर अव य ही कर सकते ह।”
“तुम आज रात को मेरे साथ भाग कर चल सकती हो?”
सहसा पावती के दय क गित क गई हो जैसे। अ ात प से अ कु ट वर म उसके
मुँह से िनकल गया“ऐसा कह होता है?”
देवदास पलँग पर कु छ िखसक कर बैठ गया और बोला“पावती, दरवाजा खोल दो।”
पावती और भी आगे िखसक कर दरवाजे के साथ अ छी तरह अपनी पीठ सटा कर
बैठ गई और बोली“पहले ित ा करो।”
देवदास उठ कर खड़ा हो गया और धीरता से कहने लगा“पारो, इस तरह जबरद ती
ित ा कराना कोई अ छी बात है या? या इससे कोई िवशेष लाभ है? आज क ित ा
स भव है क कल िनभा न सकूँ -मुझे झूठा य बनाना चाहती हो?”
और भी कु छ समय इसी कार चुपचाप बीत गया। उसी समय कह कसी कमरे क
घड़ी म टन-टन करके नौ बज गये। देवदास घबरा गया। उसने कहा— “पारो, दरवाजा
खोल दो।”
पावती ने कोई उ र नह दया। देवदास ने फर पुकारा“पावती।
“म यहाँ से नह जाऊँगी।”
यह कह कर पावती रोती-रोती उसी जगह लोट गई और ब त देर तक रोती रही।
कमरे म उस समय अँधेरा था। कह कु छ दखाई नह देता था। देवदास ने िसफ अनुमान
कया क पावती जमीन पर पड़ी ई रो रही है।
उसने धीरे से पुकारा“पारो!”
पावती ने रोते ए उ र दया“देव दा, मुझे ब त क हो रहा है।”
“देवदास उसके पास आ गया। उसक आँख भी गीली थ । ले कन वर िवकृ त नह
आ था। उसने कहा“ या म यह बात नह जानता?”
“देव दा, म मरी जा रही ।ँ म तु हारी सेवा नह कर सक । मेरी ज म भर क
साध...”
अ धकार म अपनी आँख प छते ए देवदास ने कहा“उसका भी तो समय है।”
“अ छा तो तुम मेरे यहाँ चलो। यहाँ तु ह देखने वाला कोई नह है।”
“तु हारे घर चलूँगा तो मेरी खूब सेवा करोगी?”
“यही तो मेरी बचपन क साध है। वग के देवता, मेरी यह साध पूरी कर दो। इसके
बाद अगर म मर जाऊँ तो उसका कोई दुःख नह ।”
अब देवदास क आँखो से भी पानी बहने लगा।
पावती ने फर कहा“देव दा, मेरे घर चलो।”
देवदास ने आँख प छ कर कहा“अ छा, आऊँगा।”
“मुझे छू कर और मेरी शपथ खा कर कहो क आओगे।”
देवदास ने अनुमान से पावती के चरण पश करके कहा“यह बात म कभी नह
भूलूंगा। अगर मेरी सेवा करने से तु हारा दुःख कम हो तो म तु हारे यहाँ आऊँगा। मरने से
पहले भी यह बात मुझे याद रहेगी।”
तेरहवाँ प र छे द
िपता क मृ यु के बाद लगातार छ: महीने तक घर रहने के कारण देवदास ब त ही घबरा
गया। न सुख था और न शाि तिब कु ल एक ही तरह का जीवन। ितस पर लगातार पावती
क िच ता। आजकल सभी काम और सभी बात म उसे पावती क याद आती। ऊपर से
भाई ि जदास और भौजाई ने देवदास का क और अिधक बढ़ा दया।
घर क माल कन क हालत भी देवदास जैसी ही है। वामी क मृ यु के साथ ही उनके
भी सब सुख का अ त हो चुका है। पराधीन भाव से अब इस घर म रहना उनके िलए
असहय हो गया है। इधर कु छ दन से वे काशी म जा कर रहने का संक प कर रही ह,
के वल देवदास का िववाह कये िबना नह जा सकत । बार-बार कहती हदेवदास, याह
कर ले, म देख कर जाऊँ। ले कन यह भला कै से स भव था? एक तो अशौच क अव था और
फर मन के मुतािबक एक लड़क खोजना। आजकल इसिलए माल कन के मन म रह-रह
कर अफसोस होता है क अगर उस समय पावती के साथ इसका िववाह हो जाता तो ब त
अ छा होता। एक दन उ ह ने देवदास को बुला कर कहा“देवदास, अब तो मुझसे नह रहा
जाता। कु छ दन काशी चल कर र ँ तो ठीक हो।”
देवदास क भी यही इ छा थी। उसने कहा“म भी तो यही कहता ।ँ छ: महीने बाद
लौटने पर सब हो जायगा।”
“हाँ बेटा, बस यही करो। अ त म लौट कर उनक बरसी हो जाने पर, तेरा याह
करके और यह देख कर क तुम घर-गह थी वाले हो गये हो, म फर काशीवास करने के
िलए चली जाऊँगी।”
देवदास इस पर राजी हो गया और अपनी माँ को कु छ दन के िलए काशी रख कर
कलक े चला गया। कलक े आने पर तीन-चार दन तक देवदास ने चु ी लाल को ढू ँढा।
वह नह िमला, बासा बदल कर कह और चला गया है। एक रोज स या के समय देवदास
को च मुखी क याद हो आयी। उसे खयाल आया—एक बार िमल िलया जाय न? इतने
दन तक उसका कभी यान ही नह आया था। देवदास को मानो कु छ शम-सी महसूस
ई, वह एक गाड़ी कराये पर ले कर स या होने के कु छ ही देर बाद च मुखी के मकान
के सामने जा प च
ँ ा। ब त देर तक पुकारने के बाद अ दर से कसी ी ने उ र दया,
‘यहाँ नह है’ सामने गैस-ब ी-का एक ख भा था, देवदास ने उसके िनकट जा कर
पूछा“बतला सकती हो क वह कहाँ गई है?”
िखड़क खोल कर और कु छ देर तक देख कर उसने पूछा“ या तुम देवदास हो?”
“हाँ।”
इसके बाद उसने दरवाजा खोल कर कहा“आओ?”
आवाज देवदास को कु छ-कु छ पहचानी-सी जान पड़ती थी, ले कन फर भी वह
अ छी तरह पहचान नह सका। उस समय कु छ अँधेरा भी हो गया था। उसने
पूछा“च मुखी कहाँ हैबतला सकती हो?”
ी ने मु कराते ए कहा“हाँ, बतला सकती ।ँ ऊपर चलो।”
अब देवदास ने पहचान िलया और कहा“अरे ! तुम ही?”
“हाँ, म ही ,ँ देवदास। मुझे एकदम भूल गये?”
ऊपर प च
ँ कर देवदास ने देखा क च मुखी के पहनावे म िसफ काली कनारी क
धोती है और वह भी मैली। हाथ म िसफ दो कड़े ह; इसके िसवा और कोई गहना नह है।
िसर के बाल भी बेतरतीब इधर-उधर फै ले ए ह। िवि मत हो कर उसने पूछा, “तुम
ऐसी!” अ छी तरह देखने से उसे मालूम आ क च मुखी पहले क बिन वत ब त दुबली
हो गई है।“ या तुम बीमार थ ।”
च मुखी ने हँस कर उ र दया“कोई शारी रक रोग तो िबकु ल नह है। तुम अ छी
तरह बैठो।”
देवदास ने पलँग पर बैठ कर देखा क सारे घर म एकदम प रवतन हो गया है। गृह
वािमनी क तरह उसक भी दुदशा क कोई सीमा नह है। सजावट के सामान म से एक
भी चीज नह है। अलमारी, मेज और कु रिसय क जगह खाली पड़ी ई है। िसफ एक
पलँग िबछा है और उस पर क भी चादर मैली है। दीवार पर जो तसवीर टँगी ई थ वे
हटा दी गई ह। लोहे क खूँ टयाँ अब भी दीवार म लगी ई ह और उनम से एक-दो म लाल
फ ते के टु कड़े अब भी लटक रहे ह। घड़ी अब भी ैकेट के ऊपर है। ले कन िनःश द है।
उसके आस-पास मकिड़य ने मनमाना जाल बुन रखा है। एक कोने म तेल का दीया ब त
ही धीमा-सा काश दे रहा है। उसी क सहायता से देवदास ने घर क यह नये ढंग क
सजावट देखी। उसने कु छ तो िवि मत और कु छ ु ध होकर कहा“आिखर यह दुदशा कै से
ई च मुखी?”
च मुखी ने फ क हँसी हँसते ए कहा“इसे कसने दुदशा कहा? मेरा तो भा य खुल
गया है।”
देवदास कु छ समझ न सका। उसने कहा“तु हारे शरीर के सब गहने या ए?”
“बेच डाले ह।”
“और असबाब वगैरह?”
“वह सब भी बेच दया है।”
“घर क सब तसवीर भी बेच दी?”
च मुखी ने हँसते ए सामने वाला एक मकान दखला कर कहा“उस मकान म रहने
वाली े मिण को दे दी ह।”
देवदास ने कु छ देर तक उसके मुँह क ओर देखते ए पूछा“चु ी बाबू कहाँ ह?”
“मुझे नह मालूम। कोई दो महीने ए, झगडा करके चले गये ह, फर नह आये।”
देवदास को और भी आ य आ। “झगड़ा य आ?”
च मुखी ने कहा“ य , या झगड़ा नह होता?”
“होता तो है, ले कन आिखर य ?”
“दलाली करने आये थे, इसीिलए घर से िनकाल दया।”
“काहे क दलाली?”
च मुखी ने हँस कर कहा, “इस बाजार क दलाली।” फर ठहर कर आगे कहा, “तुम
समझ नह सके ? कसी ब त बड़े सेठ को पकड़ लाये थे। दो सौ पया महीना, ब त-से
गहने और दरवाजे पर पहरे के िलए एक िसपाही। अब समझे?”
देवदास ने समझ कर हँसते ए कहा“ले कन कहाँ, वह सब कु छ भी तो नह देखता।”
“हो तब तो देखो। मने उन लोग को धता बता कर िनकाल दया था।”
“उन लोग का अपराध?”
“उनका कोई खास ऐसा अपराध तो नह था, ले कन मुझे वह सब अ छा नह लगा।”
देवदास ने ब त देर तक कु छ सोचने के बाद कहा“तब से अब तक फर कोई यहाँ नह
आया?”
“नह , तब से य , बि क िजस दन तुम यहाँ से गये हो, उसके दूसरे ही दन से यहाँ
कोई नह आया। बस, चु ी बीच-बीच म आ बैठते थे। ले कन इधर दो महीने से उनका
आना भी ब द है।”
देवदास िब तर पर लेट गया। अनमनेपन से ब त देर चुप रहने के बाद धीरे से
बोला“च मुखी, तो फर तुमने दुकानदारी सब उठा दी?”
“हाँ, दीवािलया हो गई ।ँ ”
देवदास ने उस बात का कोई उ र न दे कर कहा“ले कन तुम खाओगी या?”
“अभी तो बतलाया तु ह क जो कु छ गहने वगैरह थे, वे सब बेच दये ह।”
“उसम से अब कतना बचा है?”
“अिधक नह , फर भी आठ-नी सौ पये इस समय मेरे पास ह। एक बिनये के पास
रख दये ह। वह मुझे हर महीने बीस पये दे देता है।”
“आगे तो बीस पये म तु हारा काम नह चलता था?”
“हाँ, आजकल भी अ छी तरह से नह चलता। तीन महीने का कराया बाक है।
इसिलए सोच रही ँ क हाथ के दोन कड़े भी बेच कर और सारा देना—पावना चुका कर
और कह चली जाऊँ।”
“कहाँ जाओगी?”
“यह तो मने अभी तक तय नह कया। कसी स ती जगह म जाऊँगी। कसी ऐसे
गाँव-देहात म जहाँ बीस पये महीने म सब काम चल जाय।”
“इतने दन तक य नह गई? अगर सचमुच तु ह और कसी बात क ज रत नह
है तो इतने दन तक थ ही अपने िसर पर य इतना कज बढ़ाया?”
च मुखी िसर झुका कर कु छ सोचने लगी। अपने जीवन म इस बात को कहने म आज
उसे पहली बार शम का एहसास आ। देवदास ने कहा“ य , चुप य हो?”
च मुखी ने पलँग के एक कनारे संकुिचत भाव से बैठ कर धीरे -धीरे कहा“नाराज न
होना। जाने से पहले मने आशा क थी क अगर एक बार तुमसे भट हो जाय तो अ छा हो।
सोचती थी क शायद एक बार ज र आओगे। आज तुम आ गये हो, इसिलए अब म कल ही
यहाँ से चलने का ब दोब त क ँ गी। ले कन बतलाओगे क कहाँ जाऊँ?”
देवदास च कत हो कर उठ बैठा। उसने कहा“िसफ मुझे देखने क आशा से अब तक
क ई थ ? ले कन य ?”
“िसफ एक खयाल था मन म। तुम मुझसे घृणा करते थे, शायद इसीिलए। उतनी घृणा
और कभी कसी ने मुझसे नह क िजतनी घृणा तुम मुझसे करते थे। यह तो म नह कह
सकती क आज तु ह वह बात याद होगी या नह ; ले कन, मुझे खूब अ छी तरह याद है क
िजस दन तुम पहले-पहल यहाँ आये थे, उसी दन तुम पर मेरी दृि पड़ी थी। यह म
जानती थी क तुम ब त बड़े धनी के लड़के हो। ले कन धन क आशा से म तु हारी ओर
नह खंची। तुमसे पहले न जाने कतने लोग यहाँ आये-गये ह, ले कन, मने उनम से कसी
के भी भीतर कभी तेज नह देखा और तुमने आते ही मुझ पर आघात कया, एक अजीबोगरीब खा वहार कया। तुम मारे घृणा के मेरी ओर से मुँह फे रे रहे और चलते समय
तमाशे के तौर पर कु छ पैसे दे गये। वे सब बात तु ह याद ह?”
देवदास चुप रहा। च मुखी फर कहने लगी“बस, तभी से मने तुम पर नजर रखी।
ले कन ेम करके नह , घृणा करके भी नह । िजस तरह कोई चीज दखाई पड़ने पर वह
खूब याद रहती है, ठीक उसी तरह तु ह भी म कसी तरह नह भूल सक । जब तुम आते थे,
तब कु छ भी अ छा नह लगता था। इसके बाद न जाने मित कै सी फर गयी“अपनी इन
आँख से म ब त-सी चीज को एक और ही तरह से देखने लग गई। जो कु छ पहले ‘म’ थी,
उससे अब िब कु ल बदल गई। मानो अब वह ‘म’ नह रह गई। इसके बाद तुमने शराब
पीना शु कर दया। शराब से मुझे ब त घृणा है। कोई शराब से मतवाला होता तो उस
पर ब त ोध आता, ब त दुःख पाती।”
यह कह कर च मुखी ने देवदास के पैर पर हाथ रख कर छलछलाई ई आँख से
कहा“म ब त ही नीच ।ँ मेरे अपराध पर यान न देना। तुम न जाने कतनी बात कहते
थे, कतनी घृणा से मुझे अपने पास से हटा देते थे, ले कन फर भी म तु हारे उतने ही पास
प च
ँ ना चाहती थी। अ त म जब तुम सो जाते थे...ले कन उन सब बात को जाने दो, नह
तो शायद फर नाराज हो जाओगे।” देवदास ने कोई उ र नह दया। यह नये ढंग क
बातचीत उसे कु छ क प च
ँ ा रही थी। च मुखी ने िछपा कर अपनी आँख पोछ और आगे
कहा“एक दन तुमने कहा क हम लोग कतना सहन करती हलांछना, अपमान, जघ य
अ याचार, उप व आ द। उसी दन से मुझे ब त अिभमान हो गया है। तब से मने सब कु छ
ब द कर दया है।”
देवदास उठ कर बैठ गया। उसने पूछा“ले कन तु हारे दन कस तरह बीतगे?”
च मुखी ने कहा“यह तो म पहले ही बतला चुक ।ँ ”
“मान लो क वह तु ह धोखा दे और तु हारे सब पये...”
च मुखी डरी नह । उसने शा त और सहज भाव से कहा“यह कोई आ य क बात
नह है। मने वह भी सोच िलया है। जब मुसीबत आयेगी तब तुमसे कु छ िभ ा माँग लूंगी।”
देवदास ने कु छ सोच कर कहा“अ छा, माँग लेना। अब और कह जाने का ब दोब त
करो।”
“बस कल ही क ँ गी। दोन कड़े बेच कर एक बार उस बिनये से भट क ँ गी।”
देवदास ने जेब से सौ-सौ पये के पाँच नोट िनकाल कर त कये के नीचे रख दये और
कहा“तुम कड़े मत बेचो। हाँ, उस बिनये से ज र िमलो। ले कन तुम जाओगी कहाँ? कसी
तीथ- थान म?”
“नह देवदास, तीथ और धम पर मेरी उतनी अिधक
ा नह है। म कलक े से
ब त यादा दूर नह जाऊँगी। पास ही कसी गाँव म जा कर र ग
ँ ी।”
“ कसी भ प रवार म नौकरानी बनोगी?”
च मुखी क आँख म फर पानी आ गया। उसने आँख प छते ए कहा—“नह , यह
सब करने को मेरा जी नह चाहता। म वाधीन प से व छ द होकर र ग
ँ ी। दुःख भोगने
य जाऊँगी? शारी रक क कभी सहा नह ; अब भी नह सह सकूँ गी। अिधक ख चातानी करने से शायद यह शरीर िछ -िभ हो जाय।”
देवदास फ क हँसी हँसा, बोला—“ले कन शहर के पास रहने से स भव है क फर
लोभन म पड़ जाओ।—मनु य के मन का कोई भरोसा नह ।”
अब च मुखी का मुख िखल उठा। वह हँस कर बोली—“यह बात सच है, मनु य के
मन का कोई भरोसा नह , ले कन म अब लोभन म नह पडू ग
ँ ी?। म यह भी मानती ँ क
ि य को ब त अिधक लोभ होता है। ले कन लोभ क जो चीज़े ह उनका जब मने जानबूझ कर और अपनी इ छा से ही याग कर दया तो फर अब मुझे कोई डर नह है। अगर
म सहसा वे सारी चीज िणक आवेश म छोड़ देती तो स भव है, क सावधान रहने क
ज रत होती। ले कन इतने दन म एक दन भी तो मुझे पछतावा नह आ। म तो सुख से
।ँ ”
फर भी देवदास ने िसर िहला कर कहा—“ि य का मन चंचल और ब त ही
अिव सनीय होता है।”
उस समय च मुखी देवदास के ब त ही पास आ बैठी और हाथ पकड़ कर बोली
—“देवदास!”
देवदास के वल उसके मुँह क ओर देखता रहा, अब यह नह कह सका क मुझे मत
छु ओ।
च मुखी ने आँख म ेह भरकर उसके दोन हाथ पकड़ कर अपनी गोद म ख च
िलये और कु छ-कु छ काँपती आवाज म कहा—“आज आिखरी दन है, आज तुम नाराज न
होना। तुम से एक बात पूछने क मुझे बड़ी साध है।”
यह कह कर च मुखी ने कु छ देर तक ि थर दृि से देवदास के मुख क ओर देखते रह
कर पूछा—“ या पावती ने तु ह ब त अिधक चोट प च
ँ ायी है?”
देवदास क भ ह तन गय । उसने कहा—“यह बात य पूछती हो?”
च मुखी िवचिलत नह ई। उसने शा त और दृढ़ वर से कहा—“मुझे इसके जानने
क ज रत है। तुमसे सच कहती ँ जब तुम दु:खी होते हो तब मुझे भी ब त चोट लगती है।
इसके िसवा, शायद म तु हारी ब त-सी बात जानती ।ँ बीच-बीच म नशे क बहक म मने
तु हारे मुँह से ब त-सी बात सुनी ह। ले कन फर भी मुझे िव ास नह होता क पावती ने
तु ह धोखा दया है। बि क मेरा तो खयाल है क खुद तुमने अपने आपको धोखा दया है।
देवदास, म उमर म तुमसे बड़ी ।ँ मने इस संसार म ब त-सी चीज देखी ह। तुम जानते हो
क मुझे या खयाल होता है? मेरी समझ म यह आता है क िन य ही तु हारी भूल ई है।
मेरी समझ म ि य क जो यह ब त बड़ी बदनामी है क वे ब त ही चंचल तथा अि थरिच आ करती ह सो ठीक नह । वे उतनी अिधक बदनामी के यो य नह ह। उनक
बदनामी भी तु ह लोग करते हो और नेकनामी भी तु ह लोग करते हो। तुम लोग जो कु छ
कहना चाहते हो, वह अनायास ही कह जाते हो। ले कन ि याँ ऐसा नह कर पात । अगर
वे कह भी तो कोई समझता नह । इसके बाद उनक बदनामी ही लोग के सामने उजागर
हो जाती है।”
च मुखी कु छ क कर और अपनी आवाज म नरमी ला कर कहने लगी—“मने इस
जीवन म ेम का वसाय ब त दन तक कया है; ले कन वा तव म के वल एक ही बार
मने ेम कया है और उस ेम का मू य ब त अिधक है। मने ब त कु छ सीखा है। जानते तो
हो क ेम करना और बात है और प का मोह कु छ और बात। इन दोन म ब त अिधक
गड़बड़ी होती है और पु ष ही अिधक गड़बड़ी करते ह। प का मोह तुम लोग क अपे ा
हम लोग म ब त ही कम होता है; इसिलए तुम लोग क तरह हम लोग उ म नह हो
जात । तुम लोग आ कर अपना ेम जतलाते हो, न जाने कतनी तरह क बात और भाव
म उसे कट करते हो, हम लोग चुप ही रहती ह। ाय: ऐसा होता है क तुम लोग के मन
को लेश प च
ँ ाने म हम लोग को ल ा आती है, दुःख होता है। संकोच होता है। मुँह
देखने म भी जब घृणा होती है, तब भी कदािचत ल ा के कारण कह नह सकत क हम
तु ह ेम नह कर सकगी। इसके बाद एक णय का अिभनय आर भ होता है। फर एक
दन जब उसका अ त हो जाता है तब पु ष ु और अि थर हो कर कहते ह क ऐसी
िव ासघाितनी है!—बस, सब वही बात सुनते ह और उसी पर िव ास कर लेते ह। हम
लोग उस समय भी चुप ही रहती ह। मन म न जाने कतना दुःख होता है ले कन उसे कौन
देखने जाता है?”
देवदास ने कोई बात नह कही। च मुखी भी कु छ देर तक चुपचाप उसके मुँह क
ओर देखती रही। फर बोली—“उस समय कदािचत कु छ ममता उ प हो जाती है। ि याँ
समझती ह क कदािचत यही ेम है। वे शा त और धीर भाव से संसार के सब काम-ध धे
करती ह, दुःख के समय ाणपण से सहायता करती ह। उस समय तुम लोग उनक कतनी
नेकनामी करते हो! बात-बात म उ ह कतना ध य कहते हो! ले कन स भवत: उस समय
भी उ ह ेम का अ र ान तक नह होता। इसके बाद जब कसी अशुभ मु त म उनके
दय के अ दर क अस वेदना छटपटाती ई बाहर खड़ी हो जाती है, तब...”
इतना कह कर च मुखी देवदास के मुख क ओर दृि से देखा और कहा—“तब तुम
लोग िच ला कर कहने लगते हो, कलं कनी! छी: छी:!”
अक मात देवदास ने च मुखी का मुँह हाथ से ब द करते ए कहा—“च मुखी, यह
या।”
च मुखी ने धीरे से उसका हाथ हटाते ए कहा—“डरो मत देवदास, म तु हारी
पावती क बात नह कह रही ।ँ ”
यह कह कर वह चुप हो गई। देवदास ने भी कु छ देर तक चुप रहने के बाद अ यमन क
भाव से कहा—“ले कन कत तो है! धम-अधम है!”
च मुखी ने कहा—“वह तो है ही। और है, इसीिलए तो देवदास, जो यथाथ ेम
करता है, वह सहन कया करता है। िजसे मालूम हो जाता है क भीतर से िसफ ेम करने
से ही कतना सुख होता है, कतनी तृि होती है, वह थ ही अपनी गृह थी म दुःख और
अशाि त नह लाना चाहता। ले कन देवदास, म या कह रही थी? म िनि त प से
जानती ँ क पावती ने तु ह तिनक भी धोखा नह दया, तुमने अपने आपको ही धोखा
दया है। म जानती ँ क आज यह बात समझना तु हारे िलए संभव नह है। ले कन कभी
समय आयेगा तो शायद तुम देख सकोगे क मने इस समय जो कु छ कहा है वह ठीक है।”
देवदास क दोन आँख म पानी भर आया। आज न जाने य वह समझने लगा क
च मुखी का कहना ठीक है। च मुखी ने देख िलया क देवदास क आँख म पानी भर
आया है, ले कन उसने उसे प छने का य नह कया। वह मन-ही-मन कहने लगी—मने
तु ह अनेक बार अनेक कार से देखा है। म तु हारे मन का हाल जानती ।ँ मने खूब अ छी
तरह समझ िलया है क तुम साधारण पु ष क तरह अपनी इ छा से ेम कट नह कर
सकोगे। रही प क बात, सो वह कसे अ छा नह लगता? ले कन फर भी कसी तरह
इस बात पर िव ास नह होता क के वल इसीिलए तुम अपना इतना अिधक तेज प के
चरण पर िवस जत कर दोगे। हो सकता है क पावती ब त अिधक पवती हो। ले कन
फर भी, जान पड़ता है क पहले वही तु हारे ेम म पड़ी थी और पहले उसी ने तुम पर
यह बात कट क थी।
मन-ही-मन ये सब बात सोचते-सोचते सहसा उसके मुख से अ फु ट वर म िनकल
गया—“मने खुद ही यह समझा है क वह तुमसे कतना यार करती है।”
देवदास ज दी से उठ कर बैठ गया—“ या कहा?”
च मुखी ने कहा—“कु छ नह । म यही कह रही थी क वह तु हारे प पर नह
रीझी थी। इसम स देह नह क तुमम प है, ले कन उस पर कोई रीझ नह सकता। फर
यह प सब को दखाई भी नह देता। ले कन िजसे दख जाता है, वह फर आँख हटा भी
नह सकता।”
यह कह कर च मुखी ने ठ डी साँस ली और फर कहा—“िजसने कभी तु ह यार
कया है, वह जानती है क तुमम कतना अिधक आकषण है। इस वग से अपनी इ छा
और शौक से वापस आ सके , ऐसी ी या कोई इस पृ वी पर?”
फर कु छ देर तक चुपचाप उसके मुँह क ओर देखती ई धीरे -धीरे कहने लगी—“यह
प आँख से तो दखाई देता नह , दय के ठीक भीतरी भाग म इसक गहरी छाया पड़ती
है। इसके बाद दन का अ त होने पर वह आग के साथ ही िचता पर जल कर राख हो जाता
है।”
देवदास ने िव वल दृि से च मुखी के मुख क ओर देख कर पूछा—“आज तुम यह
सब या कह रही हो?”
च मुखी ने मु करा कर कहा—“देवदास, इससे बढ़कर आफत क बात और कोई
नह हो सकती क आदमी िजसे यार न करता हो, वही जबरद ती यार क कहानी
सुनाने बैठ जाय! ले कन म िसफ पावती क तरफ से वकालत कर रही थी, अपने िलए
नह ।” देवदास उठने के िलए उ त हो कर बोला—“अब म जाता ।ँ ”
“जरा और बैठो। कभी तु ह होश म नह पाया, कभी इस तरह तु हारे दोन हाथ
पकड़ कर बात नह कर सक —यह कै सी तृि है!” इतना कह कर वह हठात हँस पड़ी!
देवदास ने च कत होकर पूछा—“तुम हँस य पड़ ?”
“कु छ नह , य ही एक पुरानी बात याद हो आई। वह आज दस बरस पहले क बात है
जब म ेम के फे र म अपना घर-बार छोड़ कर चली आई थी। उस समय समझती थी क म
कतना अिधक ेम करती ँ और शायद इसके िलए अपने ाण दे सकती ।ँ इसके बाद एक
दन एक तु छ गहने के िलए हम दोन म ऐसा झगड़ा हो गया क फर कभी कसी ने एकदूसरे का मुँह न देखा। तब मन को सा वना दी क वह मुझे िबकु ल यार नह करता,
अ यथा या गहना न देता?”
च मुखी फर एक बार य ही हँस पड़ी। ले कन फर तुर त ही शा त और ग भीर
मुख से धीरे से बोली—“चू हे म जाय गहरा गहना! उस समय कहाँ जानती थी क एक
सामा य िसर का दद अ छा कर देने के बदले म भी अकातर भाव से यह ाण दये जा
सकते ह! उस समय न सीता और दमय ती क था समझती और न म जगाई-मधाई1 क
कथा पर ही िव ास करती थी। अ छा देवदास, इस जगत म सभी कु छ स भव है न?”
देवदास कु छ भी न कह सका। हत-बुि क तरह कु छ देर तक एकटक देखता रहा और
बोला—“अब म जाता ।ँ ”
“डर या है! जरा बैठो। म तु ह और भुला कर नह रखना चाहती। मेरे वे दन बीत
गये। अब तो िजतनी घृणा तुम मुझसे करते हो, उतनी ही म अपने आप पर करती ।ँ
ले कन देवदास, तुम याह य नह कर लेते?”
इतनी देर म मानो देवदास ने साँस ली। उसने कु छ हँस कर कहा—“उिचत तो जान
पड़ता है, ले कन वृि नह होती।”
“ वृि न होने पर भी याह कर डालो। बाल-ब का मुख देखने से ब त कु छ
शाि त पाओगे। इसके िसवा मेरे िलए भी एक रा ता िनकल आयेगा। तु हारे घर म दासी
क तरह रह कर दन िबता सकूँ गी।”
देवदास ने हँसते ए कहा—“अ छा, उस समय म तु ह बुलवा भेजूँगा।”
च मुखी मानो उसक वह हँसी देख ही नह सक और बोली—“जी चाहता है क
तुमसे एक बात और भी पूछूँ।”
“ या?”
“तुमने इतनी देर तक मेरे साथ बात य क ?”
“ य , इसम कोई दोष है?”
“यह तो म नह जानती। ले कन यह नई बात ज र है। इससे पहले जब तक तुम
शराब पी कर नशे म चूर नह हो जाते थे, तब तक कभी मेरा मुँह नह देखते थे।”
देवदास ने च मुखी के इन
का कोई उ र न देकर िवष ण मुख से कहा—“अब
म शराब नह छू ता। मेरे िपता जी क मृ यु हो गई है।”
च मुखी ब त देर तक क ण दृि से देखती रही, फर बोली—“इसके बाद तो
शराब नह िपयोगे?”
“कह नह सकता।”
च मुखी ने उसके दोन हाथ और भी अपनी तरफ ख च कर अ ु- ाकु ल वर से
कहा—“अगर हो सके तो हमेशा के िलए छोड़ दो। देखो, असमय म ऐसे सु दर ाण न न
करो।”
देवदास सहसा उठ कर खड़ा हो गया और बोला—“म जाता ।ँ तुम जहाँ जाना वहाँ
से खबर भेजना और अगर कभी ज रत हो तो मुझसे संकोच मत करना।”
च मुखी ने णाम करके उसके चरण क धूल म तक पर लगाई और कहा
—“आशीवाद दो क म सुखी र ।ँ एक िभ ा और माँगती ।ँ ई र न करे , अगर कभी
दासी क आव यकता हो तो इसे मरण करना।”
“अ छा।” कह कर देवदास चला गया। च मुखी ने दोन हाथ जोड़ कर रोते ए
कहा—भगवान, फर एक बार कसी तरह इनसे भट हो।
(जगाई और मधाई नव ीप के दो दु ा ण थे िज ह वहाँ के काजी ने कोतवाल बना
दया था। इनके अ याचार से जा ब त ही दुखी रहती थी। ी गौरांग महा भु के
िन यान द और ह रदास नामक दो िश य नगर म नाम- चार करते- फरते थे। उस समय
जगाई मधाई उ ह माग म िमले। उ ह देख कर िन यान द को इस बात का ब त दुःख आ
क ये दोन ा ण के लड़के होकर भी इतना पाप और अ याचार करते ह। इनका कसी
कार उ ार करना चािहए। यह सोच कर उ ह ने हाथ जोड़कर उन दोन से कहा क
भाई, एक बार ह र नाम कहो। दोन ही उस समय नशे म चूर थे। मधाई ने मारे ोध के
पास ही पड़ा आ िमट् टी का एक फू टा घड़ा उठा कर िन यान द के िसर पर दे मारा िजससे
खून बहने लगा। फर भी िन यान द ने उसके पैर पर िगर कर ह र नाम कहने क ाथना
क । उसी समय गौरांग महा भु भी यह समाचार सुन कर अपने िश य सिहत वहाँ आ
प च
ँ ।े उ ह देख कर जगाई मधाई उनके चरण पर िगर पड़े और तभी से गौरांग महा भु
के िश य तथा परम भ हो गये, और अपने सब काम छोड़ कर ई र भ क सेवा करने
लगे।—अनुवादक।)
चौदहवाँ प र छे द
इसी तरह दो वष बीत गये। महे का िववाह करके पावती ब त कु छ िनि त हो गई है।
पु वधू जलदबाला बुि मती और कायपटु है। उसके बदले संसार के ब त-से काम वही
करती है। पावती ने अब दूसरी ओर मन लगाया है। उसका याह ए पाँच वष हो गये,
ले कन कोई स तान नह ई। उसके अपने लड़के -ब े नह ह, इसिलए दूसर के लड़के -ब
पर उसका ब त अिधक अनुराग है। गरीब और दुिखय क बात तो दूर रही, िजन लोग
के खाने-पीने का कु छ ठकाना है, उनके बाल-ब का भी अिधकांश खचा उसने अपने
ऊपर ले िलया है। इसके िसवा देव-मं दर का काम-ध धा करके , साधु-सं यािसय क सेवा
करके और अ ध तथा लूले-लँगड़ क देख-रे ख करके उसके दन कट रहे ह। अपने वामी से
कह कर पावती ने एक और अितिथशाला बनवा ली है। उसम बेआसरा और असहाय लोग
इ छानुसार रह सकते ह। जम दार के यहाँ से ही उन लोग को खाने और ठहरने को
िमलता है। इसके िसवा एक और काम पावती ब त ही गु
प से कया करती है, वामी
को भी उसक खबर नह होने देती। वह द र भले आदिमय को चुपचाप आ थक
सहायता देती है। यह उसका खुद अपना खच था। अपने वामी से वह हर महीने जो कु छ
पाती है, वह सब इसी म खच होता है, उसका पता कचहरी के नायब-गुमा त को लगे
िबना नह रहता। वे लोग आपस म इस बारे म बक-झक कया करते ह और दािसयाँ छु प
कर सुन आती ह क आजकल गह थी का खच पहले से दूना हो गया है। खजाना िबकु ल
खाली है, कु छ भी जमा नह हो रहा है। जब गृह थी का थ खच ब त बढ़ जाता है तब
दास-दािसय को क होता है! उ ह से जलद ने भी ये सब बात सुन । एक रोज रात को
अपने पित से कहा—“ या तुम घर के कोई नह हो?”
महे ने पूछा—“ य , आिखर बात या है?”
ी ने कहा—“दास-दािसयाँ तक देख रही ह, तुम नह देख सकते हो? बाबूजी तो माँ
से कु छ कहगे नह ; ले कन, तु ह तो कहना उिचत है?”
महे क समझ म कु छ न आया। ले कन उसक उ सुकता बढ़ गई, उसने पूछा
—“आिखर बात या है?”
जलदबाला ग भीर होकर वामी को म णा देने लगी—“नई माँ को लड़के -ब े तो
ह नह । फर उ ह गह थी का यान य होने लगा? तुम देख नह रहे हो क उ ह ने सब
कु छ उड़ा-उडू दया है।”
महे भ ह िसकोड़ कर कहा—“ कस तरह?”
जलद ने कहा—“अगर तु ह आँख होत तो देख सकते। आजकल गृह थी का खच दूना
हो गया है। सदा त, दान-पु य, अितिथ, िभ ुक सभी कु छ तो है। अ छा, वे तो अपना
परलोक सुधार रही ह, ले कन तु हारे तो आगे बाल-ब े ह गे, वे या खायगे? अपना सब
लुट जाने पर या वे लोग अ त म भीख माँगगे?”
महे पलँग पर उठ कर बैठ गया और बोला—“तुम कसक बात कह रही हो? माँ
क ?”
जलद ने कहा—“मेरी तकदीर ही फू ट गई है जो सब बात मुझे मुँह खोल कर कहनी
पड़ी।”
महे ने कहा—“इसीिलए तुम माँ के नाम फ रयाद करने आई हो?”
जलद ने कु छ नाराज होकर कहा—“मुझे नािलश-फ रयाद क ज रत नह है। मने
तु ह िसफ भीतरी बात बतला दी है। नह तो अ त म तुम मुझे ही दोष देते।”
महे ने ब त देर तक चुप रहने के बाद कहा—“तु हारे बाप के घर हाँड़ी तक तो
रोज चढ़ती नह ; तुम जम दार के घर के खच का हाल या जानो!”
इस पर जलद को गु सा आ गया। बोली—“और तु हारी माँ क बाप के घर कतनी
अितिथशालाएँ खुली ह, कहो न?”
महे िबना उससे िवशेष तक-िवतक कये चुपचाप पड़ा रहा। सबेरे उठ कर पावती
के पास प च
ँ कर बोला—“माँ, तुमने भी मेरा खूब याह कया! इसके साथ तो गृह थी
चलाई ही नह जा सकती। म तो अब कलक े जाता ।ँ ”
पावती ने अवाक हो कर पूछा—“ य बेटा?”
“वह तु हारे बारे म कड़वी बात कहती है। मने उसे छोड़ दया।”
पावती इधर कु छ दन से बड़ी ब का रं ग-ढंग देख रही थी। ले कन उस भाव को
दबा कर उसने हँसते ए कहा—“छी: बेटा, वह तो मेरी ब त अ छी लड़क है।”
इसके बाद उसने जलद को एका त म बुला कर कहा—“ य बेटी, कु छ झगड़ा आ
है?”
सबेरे से ही जलद अपने वामी क कलक ा-या ा का आयोजन देख कर मन-ही-मन
डर रही थी। सास क बात सुन कर रोने लगी और बोली—“माँ, दोष मेरा ही है। ले कन ये
नौकरािनयाँ ही खरच-वरच के बारे म तरह-तरह क बात कया करती ह।”
पावती ने सब बात सुन । उसने खुद ही लि त हो कर ब क आँख प छ और कहा
—“ब तुम ठीक कहती हो। ले कन बेटी, म वैसी गृहि थनी नह ;ँ इसिलए खरच-वरच
का मुझे उतना यादा खयाल नह था।”
इसके बाद उसने महे को बुला कर कहा—“बेटा, तुम िबना अपराध के ोध मत
करो। तुम वामी हो। यही ठीक है क तु हारी मंगल-कामना के आगे ी के िलए और सब
बात तु छ ह । ब तु हारी ल मी है।”
ले कन उसी दन से पावती ने अपना हाथ ख चना शु कर दया। अब अितिथशाला
और देवमि दर क पहले क तरह सेवा नह होती। ब त-से अनाथ-अ धे और साधु-फक र
य ही वापस चले जाते ह। घर के मािलक ने यह सुन कर पावती को बुला कर पूछा—“ य
जी, या ल मी का भ डार खतम हो गया?”
पावती ने हँसते ए कहा—“िसफ देते रहने से कहाँ तक काम चलेगा? कु छ दन जमा
भी तो करना चािहए। देखते नह हो, खच कतना बढ़ गया है?”
“बढ़ने दो। अब मुझे और कतने दन जीना है? जो थोड़े-से दन ह उनम स कम करके
परलोक क तरफ देखना ही उिचत है।”
पावती ने हँस करकहा—“यह तो ब त ही वा थय क -सी बात है। िसफ अपना ही
खयाल रखोगे और लड़के -ब को य ही बह जाने दोगे? कु छ दन तक और चुप रहो।
उसके बाद फर सब होगा। आदमी के काम तो कभी खतम हो नह जाते?”
चौधरी महाशय लाचार हो गये।
पावती का काम-ध धा अब कम हो गया, इसीिलए उसक िच ताएँ कु छ अिधक बढ़
गई। ले कन सभी िच ता का एक अलग ढंग है। िजसे कु छ आशा है, वह एक तरह से
सोचता है और िजसे कोई आशा नह होती, वह कु छ और ही तरह सोचता है। आशा वाली
िच ता म सजीवता है, सुख है, तृि है, दुःख है और उ कं ठा है। इसीिलए वह मनु य को
ा त कर देती है, वह अिधक समय तक नह सोच सकता। ले कन आशाहीन को न तो सुख
है, न दुःख है, न उ कं ठा है, फर भी तृि है। उसक आँख से आँसू भी िगरते ह, उसम
ग भीरता भी होती है, ले कन वह िच ता रोज नये िसरे से उसे चोट नह प च
ँ ाती! वह
हलके मेघ क तरह जहाँ-तहाँ तैरती रहती है। जहाँ हवा नह लगती, वहाँ ठहरती है; और
जहाँ लगती है, वहाँ से िखसक जाती है। त मय मन उ ग
े हीन िच ता म एक साथकता ा
करता है। पावती का भी आजकल ठीक यही हाल है। जब वह पूजा आ द िन य-कम करने
बैठती है तब उसका उद्दे यहीन और हताश मन चट-पट तालसोनापुर क बाँस क
झािड़य , आम के बगीच , पाठशाला और तालाब के घाट आ द का च र लगा आता है।
और कभी-कभी कसी ऐसे थान म िछप जाता है क पावती वयं अपने आपको ही ढू ँढ
नह पाती। आगे शायद कभी-कभी उसके ह ठ के कोन पर हँसी भी आ जाया करती थी,
ले कन आजकल तो उसक आँख से बस एक बूँद जल िगर कर पंचपा के जल म िमल
जाता है। तो भी दन कट ही रहे ह। काम-ध धा करने, मीठी बात कहने और परोपकार
और सेवा-टहल करने म और सब कु छ भूल कर यानम योिगनी क तरह रहने म दन
कट जाते ह। कोई उसे कहता है ल मी- व पा अ पूणा और कोई कहता है अ यमन का
उदािसनी। ले कन कल सबेरे से उसम एक और ही कार का प रवतन दखाई दे रहा है।
वह मानो कु छ तीखी और कु छ कठोर हो गई है। प रपूण और वार वाली गंगा म मानो
अचानक कह से भाटा आ गया है। घर का कोई आदमी उसका कारण नह जानता, िसफ
हम जानते ह। मनोरमा ने कल गाँव से एक प म िलखा है:
“पावती, इधर ब त दन से हम लोग म से कसी ने भी एक-दूसरे को कोई प नह
िलखा है, इसिलए दोष दोन का ही आ है। म चाहती ँ क एक समझौता हो जाय। दोन
ही अपना-अपना दोष वीकार करके अपनी-अपनी नाराजगी को कम कर। ले कन म बड़ी
ँ इसिलए म ही मा माँग लेती ।ँ म आशा करती ँ क तुम शी ही उ र दोगी। आज
ाय: एक मास आ है मुझे यहाँ आये ए। हम लोग गृह थ के घर क ि याँ ठहर ,
इसिलए शारी रक अ छाई और बुराई पर उतना यान नह देत । मर जाने पर कहती ह
क गंगा-लाभ आ है; और जब जीती ह तब कहती ह—अ छी ह। म भी इसिलए अ छी
।ँ ले कन यह तो ई अपनी बात। कु छ इधर-उधर क बात भी हो। इधर-उधर क कोई
ऐसी खास बात नह है। तो भी एक खबर तु ह सुनाने क ब त इ छा हो रही है। कल से ही
सोच रही ँ क तु ह यह समाचार दूँ या न दू;ँ तो भी, मुझसे रहा नह जाता। मानो मारीच
क -सी दशा हो रही है। देवदास का हाल सुन कर तु ह तो दुःख होगा ही, ले कन तु हारी
हालत का यान करके म भी िबना रोये नह रह सकती। भगवान ने ब त ही र ा क ; नह
तो तु हारे जैसी आ मािभमािननी अगर उसके हाथ म पड़ती तो या तो अब तक गंगा म
डू ब मरती या जहर खा लेती। और रहा उसका हाल, सो आज सुना तो भी सुनोगी और दो
दन बाद सुनो तो भी सुनोगी, य क जो बात सारे संसार के लोग जानते ह, उसे या
िछपाना?
“आज छ:-सात दन ए देवदास यहाँ आया है। तुम यह तो जानती ही हो क
जम दा रन काशीवास करती ह और देवदास कलक ा-वासी हो गया है। यह घर आया है,
िसफ अपने बड़े भाई के साथ झगड़ा करने और पये लेने। सुना है क वह इसी तरह बीचबीच म आया करता है और जब तक पय का इ तजाम नह हो जाता, तब तक ठहरता है;
पये िमलते ही चला जाता है।”
“उसके िपता को मरे ढाई बरस हो गये ह। तु ह यह सुन कर आ य होगा क इतने ही
समय म उसने अपनी लगभग आधी स पि उड़ा दी है। ि जदास तो ब त ही िहसाब से
रहने वाला आदमी है, इसीिलए उसने पैतृक स पि कसी कार अपने ही हाथ म रखी है।
नह तो इतने दन म उसे भी दस आदमी िमल कर लूट लेते ले कन जो शराब और
वे या म अपना सव व होम कर रहा है, उसक कौन र ा करे गा? एक यमराज ही कर
सकता है। और मालूम होता है क उसम भी अब अिधक िवल ब नह है। खै रयत यही है
क उसने याह नह कया।
“हाय, दुःख भी होता है? न तो अब वह सोने का-सा रं ग है, न वह प है और न वह
ी ही है। मालूम होता है क यह और ही कोई है। िसर के खे बाल हवा म इधर-उधर
उड़ते रहते ह, आँख गढ़े म धँस गई ह और नाक खाँड़े क तरह आगे िनकल आई है। अब म
तु ह या बतलाऊँ क वह कै सा कु ि सत हो गया है। देखने से घृणा होती है और डर लगता
है। दन भर नदी कनारे बाँध पर बदूक हाथ म िलये िचिड़याँ मारता- फरता है और जब
धूप म िसर घूमने लगता है तब बाँध पर उसी बेर के पेड़ के नीचे िसर नीचा करके बैठा
रहता है। स या हो जाने पर आ कर शराब पीता है। और रात को सोता है या घूमताफरता रहता है, यह भगवान ही जान।
“उस दन स या को म नदी से जल लाने गई थी। देखा क देवदास हाथ म ब दूक
िलये कनारे - कनारे सूखा आ मुँह िलये चला जा रहा है। जब मुझे पहचाना, तो पास आ
कर खड़ा हो गया। म तो मारे डर के मर गई। घाट पर कह कोई नह था। उस दन म
अपने आपे म नह रह गई। भगवान ने ब त ही र ा क क उस दन उसने पागलपन या
बदमाशी नह क । उसने िबकु ल िनरीह और भले आदिमय क तरह शा त भाव से पूछा
—“ य मनो, अ छी तो हो बहन!”
“उस समय और या करती! डरते-डरते सर िहला कर कह दया—“ ।ँ ”
“तब उसने एक ठं डी साँस लेकर कहा—तुम सुखी रहो बहन, तुम लोग को देखने से
मुझे ब त आन द होता है। इसके बाद धीरे -धीरे चला गया। म उठती थी तो िगर-िगर
पड़ती थी। फर भी शरीर क सारी शि लगा कर भागी। मइया री! बड़े भा य थे क
उसने कह मेरा हाथ-वाथ नह पकड़ िलया। अ छा, अब उसक बात जाने दो। अगर म
उस दुवृ का सब वृता त िलखने लगूँ तो इस िचट् ठी म पूरा नह आ सकता।
“बहन, मने तु ह ब त क दया न? अगर आज तक भी तुम उसे नह भूली हो तो
तु ह क तो होगा ही, ले कन उपाय ही या है? और इसके िलए अगर मुझसे कोई अपराध
आ हो, तो अपने गुण से अपनी ेहाकांि णी मनो बहन को मा कर देना।”
कल ही यह प आया था। आज उसने महे को बुला कर कहा—“दो पाल कयाँ और
बतीस कहार चािहए। म इसी समय तालसोनापुर जाऊँगी।”
महे ने च कत होकर पूछा—“पाल कयाँ और कहार तो म ला देता ,ँ ले कन माँ दो
पाल कयाँ या ह गी?''
पावती ने कहा—“बेटा, तु ह संग चलना होगा। अगर रा ते म कह मर गई तो मुँह म
आग देने के िलए बड़े लड़के क ज रत होगी।”
महे ने फर भी कु छ नह कहा। पाल कयाँ आने पर दोन ने वहाँ से चल दये।
जब चौधरी महाशय ने सुना तब घबरा कर नौकर और दािसय से पूछा; ले कन
कोई भी कारण न बतला सका। आिखर उ ह ने अ ल खच करके और भी दस-पाँच दरबान
और दास-दािसय को भेज दया।
एक िसपाही ने पूछा—“अगर रा ते म भट हो जाये तो या पालक लौटा लाय?”
उ ह ने कु छ सोच-समझ कर कहा—“नह , इसक ज रत नह । तुम लोग उनके साथ
चले जाना िजससे रा ते म कोई आफत-वाफत न आये।”
उसी दन स या के बाद दोन पाल कयाँ तालसोनापुर जा प च
ँ । ले कन देवदास
गाँव म नह था, उसी दन दोपहर को कलक े चला गया था।
पावती ने अपना माथा ठ क कर कहा—भा य। और फर उसने मनोरमा के साथ भट
क।
मनोरमा ने पूछा—“ य पारो या देवदास से िमलने आई थ ?”
पावती ने कहा—“नह , अपने साथ ले जाने के िलए आई थी। यहाँ तो उनका कोई
अपना है नह ।”
मनोरमा अवाक हो गई। उसने कहा—“ह! यह या कह रही हो! लाज नह आती?”
“लाज काहे क ? अपनी चीज आप ले जाऊँगी, इसम लाज काहे क ?”
“छी: छी:। यह कै सी बात करती हो! तु हारा तो कोई र ता-नाता तक नह है। ऐसी
बात कभी मुँह पर भी न लाना!”
पावती ने फ क हँसी हँस कर कहा—“मनो बहन, होश सँभालने के दन से जो बात
मन के अ दर बस रही है, वह एकाध बार मुँह से भी िनकल जाती है। तुम मेरी बहन हो,
इसिलए तुमने यह बात सुन ली।”
दूसरे दन सुबह-सवेरे पावती अपने िपता और माता के चरण म णाम करके फर
पालक पर सवार हो गई।
प हवाँ प र छे द
आज दो बरस ए, च मुखी ने अशथझुरी नामक गाँव म अपना मकान बना िलया है।
छोटी नदी के कनारे एक ऊँची जगह पर िमट् टी के बने ए दो साफ कमरे ह। पास ही एक
छ पर पड़ा है िजसम काले रं ग क एक मोटी-तगड़ी गाय बँधी है। दो कमर म से एक म
रसोई होती है, बरतन आ द रखे रहते ह और दूसरे म वह सोती है। आँगन खूब साफ-सुथरा
है। रमा बागदी क लड़क उसे रोज लीप-पोत जाती है। चार ओर एर ड के पेड़ का घेरा
है, बीच म एक बेर का पेड़ है और एक तरफ तुलसी। सामने नदी का घाट है। कु छ मजूर
लगा कर और खजूर के पेड़ कटवा कर सी ढ़याँ तैयार करा ली गई ह। उसके िसवा उस घाट
का कोई उपयोग नह करता। जब बरसात म नदी के दोन कनारे भर जाते ह तब
च मुखी के मकान के नीचे तक जल आ जाता है। गाँव के लोग घबरा कर कु दाल िलये ए
दौड़ आते ह और नीचे िमट् टी डाल कर जमीन ऊँची कर जाते ह। इस गाँव म ऊँची जाित के
लोग नह रहते, कसान, अहीर, बागदी आ द रहते ह; दो घर कलवार के ह और गाँव के
अ त म दो मोची भी रहते ह। इस गाँव म आने पर च मुखी ने देवदास को समाचार दया
था। उ र म उसने कु छ और पये भेज दये थे। च मुखी उ ह पय को गाँव के लोग को
उधार के तौर पर देती है। आपद-िवपद के समय सभी लोग दौड़े ए उसके पास आते ह
और पये ले कर अपने घर जाते ह। च मुखी सूद नह लेती। हाँ, उसके बदले वे लोग के ले,
मूली, खेत क साग-भाजी वगैरह खुद ही दे जाते ह। वह मूल रकम के िलए भी लोग को
तंग नह करती। जो पये नह दे सकता, वह नह देता।
च मुखी हँस कर कहती है—अब तु ह कभी पये नह दूग
ँ ी।
वह न भाव से कहता है—माँ जी, आप आशीवाद द िजससे इस बार अ छी फसल
हो।
च मुखी आशीवाद देती है, फर भी शायद अ छी फसल नह होती। लगान का
तकाजा होता है। वे लोग फर आते ह और मन-ही-मन हँसती ई वह कहती है, ‘वे’ जीते
रह, मुझे पय क या िच ता!
ले कन ‘वे’ ह कहाँ? ाय: छै मास हो गये ह, उसे कोई समाचार नह िमला। वह
िचट् ठी िलखती है तो कोई जवाब नह आता, रिज ी िचट् ठी भी लौट आती है। वाले का
एक घर च मुखी ने अपने घर के पास ही बसाया है। उसके लड़के के याह म उसने साढ़े
दस गंडे पये लड़क वाले को दये ह और एक जोड़ी हल भी खरीद दया है। वह
सप रवार च मुखी का आि त और िनता त आ ाकारी है। एक दन सबेरे च मुखी ने
वाले को बुला कर कहा—“ य भैरव, तुम जानते हो क तालसोनापुर यहाँ से कतनी दूर
है?”
भैरव ने सोच कर कहा—“दो मैदान पार करने के बाद ही वहाँ क कचहरी है।”
च मुखी ने पूछा—“वहाँ शायद जम दार रहते ह?”
भैरव ने कहा—“हाँ, वही इस इलाके के जम दार ह। यह गाँव उ ह का है। आज तीन
बरस ए उनका वगवास हो गया है। उस समय सारी जा ने एक महीने तक वहाँ पूरीिमठाई खाई थी। अब उनके दो लड़के ह। ब त बड़े आदमी ह—एकदम राजा समझो।”
च मुखी ने कहा—“भैरव, तू मुझे वहाँ ले जा सकता है?”
भैरव ने कहा—“माँ जी, ले य नह जा सकता! िजस दन जी चाहे, चलो।”
च मुखी ने उ सुक हो कर कहा—“तो फर चलो भैरव, हम लोग आज ही चल।”
भैरव ने च कत हो कर कहा—“आज ही।” इसके बाद च मुखी क ओर ल य करके
कहा—“अ छा तो फर माँ जी, तुम ज दी रसोई कर लो। म भी थोड़ा-सा चबेना बाँध
लेता ।ँ ”
च मुखी ने कहा—“नह भैरव, अब म रसोई नह बनाऊँगी। तुम चबेना बाँध लो।”
भैरव ने घर जाकर थोड़ा-सा चबेना और गुड़ चादर के प ले म बाँध कर उसे क धे पर
डाल िलया। थोड़ी ही देर बाद वह एक लाठी हाथ म ले कर आ प च
ँ ा और बोला
—“अ छा तो चलो। ले कन माँ जी, तुम कु छ खाओगी नह ?”
च मुखी ने कहा—“नह भैरव, मने अभी तक पूजा-पाठ नह कया है। अगर समय
िमला तो वह चल कर सब कु छ कर लूँगी?”
भैरव आगे-आगे रा ता दखलाता आ चला, पीछे-पीछे च मुखी भी ब त क से
मड़ पर पैर रखती ई चलने लगी। उसके दोन अन य त कोमल पैर कट-फट गये और
धूप से सारा मुँह लाल हो गया। ान और भोजन आ द कु छ भी नह आ था तो भी
च मुखी मैदान के बाद मैदान पार करती ई आगे बढ़ने लगी। खेत म काम करने वाले
कसान च कत हो कर उसके मुँह क ओर देखते रहे।
च मुखी के पहनावे म लाल कनारे क एक धोती थी, हाथ म दो कड़े थे, माथे पर
आधी दूर तक घूँघट था और सारा शरीर िबछौने क एक मोटी चादर से ढँका आ था।
सूया त होने म यादा देर नह थी जब दोन आदमी गाँव म जा प च
ँ ।े च मुखी ने कु छ
हँस कर कहा—“भैरव, तु हारे दो मैदान या अब जा कर पूरे ए ह?”
भैरव ने इस प रहास को न समझ कर सरल भाव से कहा—“माँ जी, अब तो आ
प च
ँ े ह। ले कन आपका सुखी शरीर ठहरा, आज या आप लौट सकगी?”
च मुखी ने मन-ही-मन कहा—आज क कौन कहे, म तो शायद कल भी इस रा ते म
न चल सकूँ गी। फर कट प से कहा—“भैरव, यहाँ गाड़ी नह िमलती?”
भैरव ने कहा—“िमलती य नह माँ जी, म एक बैलगाड़ी ठीक क ँ ?”
भैरव गाड़ी का ब दोब त करने के िलए दूसरी तरफ चला गया। गाड़ी ठीक करने क
आ ा दे कर च मुखी ने जम दार साहब के मकान म वेश कया। मकान के अ दर ऊपर
वाले बरामदे म बड़ी ब (आजकल जम दार-गृिहणी) बैठी ई थी। एक दासी ने च मुखी
को वह ले जा कर प च
ँ ा दया। दोन ने एक-दूसरी को अ छी तरह देखा।
च मुखी ने नम कार कया। बड़ी ब के सारे शरीर पर गहने नह समाते और आँख
के कोन से अहंकार फटा पड़ता है। दोन ह ठ और सब दाँत पान और िम सी से काले हो
गये ह। एक तरफ का गाल कु छ ऊँचा है, शायद पान और सुरती भरी ई है। िसर के बाल
इस तरह ख च कर बाँधे गये ह क जुड़ा िसर के अ भाग से भी ऊपर उठ गया है। दोन
कान म छोटी-बड़ी सब िमला कर बीस-प ीस बािलयाँ ह। नाक म एक तरफ ल ग और
दूसरी तरफ एक बड़ा-सा छेद है। जान पड़ता है क सास के समय उस छेद म नथ पहनी
जाती थी!
च मुखी ने देखा क बड़ी ब खूब मोटी-तगड़ी है, खूब मँजा-िघसा शरीर है, खूब
काला रं ग है, खूब बड़ी-बड़ी आँख ह, गोल-मटोल चेहरा है। पहनावे म काली कनारी क
साड़ी है और बदन पर एक क मती कु रती। उसे देख कर च मुखी को कु छ घृणा ई। उधर
बड़ी ब ने देखा क य िप च मुखी क अव था अिधक हो गई है तो भी उसके शरीर म
प नह समाता, फटा पड़ता है। जान पड़ता है क दोन क अव था समान है; ले कन
बड़ी ब ने मन-ही-मन यह बात वीकार नह क । इस गाँव म एक पावती को छोड़ कर
और कसी ी म बड़ी ब ने इतना प नह देखा था। उसने च कत हो कर पूछा—“तुम
कौन हो जी?”
च मुखी ने कहा—“म आपक ही एक जा ।ँ कु छ मालगुजारी बाक पड़ी है, वही
देने आई ।ँ ”
बड़ी ब ने मन-ही-मन स होकर कहा—“तो फर यहाँ य आई? कचहरी म
जाओ न!”
च मुखी ने कु छ मु करा कर कहा—“ब जी, हम लोग गरीब ठहरी। पूरी
मालगुजारी तो दे नह सकत । सुना है क आप ब त दयावान ह। इसिलए आपके पास
आई ।ँ दया करके शायद आप कु छ माफ कर द।”
इस तरह क बात बड़ी ब ने अपने जीवन म आज पहले-पहल ही सुनी क मुझम
दया है, मालगुजारी भी माफ कर सकती ँ और इसिलए च मुखी उसक परम ि य पा ी
बन गई। उसने कहा—“सो बेटी, दन भर म इस तरह कतने ही पये मुझे छोड़ देने पड़ते
ह, कतने लोग आ कर मुझे घेरते ह और मुझसे ‘नह ’ नह कया जाता, इसके िलए
मािलक मुझ पर न जाने कतना नाराज भी होते ह।—हाँ, तो तु हारे कतने पये बाक
पड़े ह?”
“ब त नह , खाली दो पये। ले कन मेरे िलए तो मानो वही पहाड़ हो रहे ह। आज
दन-भर रा ता चल कर यहाँ तक आई ।ँ ”
बड़ी ब ने कहा—“आहा, तो तुम लोग गरीब ठहरी; हम लोग का दया करना ही
उिचत है। अरी िब दुमती, इ ह बाहर ले जा और दीवान जी से मेरा नाम ले कर कह दे क
दो पये माफ कर द। हाँ जी, तु हारा मकान कहाँ है?”
च मुखी ने कहा—“आपके ही रा य म उस अशथझूरी गाँव म। य ब जी, मािलक
तो दो िह सेदार ह न?”
बड़ी ब ने कहा—“फू टी तकदीर! दूसरा िह सेदार और कौन है? दो दन बाद हमारा
ही तो सब होगा।”
च मुखी ने उि हो कर पूछा—“ य ब जी, छोटे बाबू पर शायद ब त यादा
कज है?”
बड़ी ब ने कु छ हँस कर कहा—“सब हमारे ही पास रे हन है। छोटे बाबू एकदम
बरबाद हो गये ह। कलक े म शराब और रं डी, बस इ ह ही लेकर रहते ह। न जाने कतने
पये उड़ा दये, कु छ ठकाना है!”
च मुखी का मुँह सूख गया। उसने कु छ क कर पूछा—“तो हाँ ब जी, या छोटे
बाबू कभी नह आते?”
बड़ी ब ने कहा—“आते य नह ह? जब पये क ज रत होती है, आते ह। कज ले
कर और जायदाद रे हन रख कर चले जाते ह। अभी कोई दो महीने ए आये थे, बारह
हजार पये ले गए ह। अब उनके बचने के भी कोई ल छन नह ह। सारे बदन म ब त ही
खराब बीमारी हो गई है—छीः छी:।”
च मुखी िसहर उठी। उसने मिलन मुख से पूछा—“वे कलक े म कहाँ रहते ह?”
बड़ी ब ने िसर पीट कर हँसते ए कहा—“क ब ती! या कोई जानता है क वे
कहाँ रहते ह? कह कसी होटल म खा-पी लेते ह, िजस-ितस के घर पड़े रहते ह! वही जान
और उनक शराब जाने।”
च मुखी सहसा उठ कर खड़ी हो गई और बोली—“अ छा, तो म जाती ।ँ ”
बड़ी ब ने कु छ च कत हो कर पूछा—“तुम जाओगी? अ छा; अरे ओ िब दुमती।”
च मुखी ने रोक कर कहा—“नह ब जी, आप रहने द। म आप ही कचहरी चली
जाऊँगी।”
इतना कह कर धीरे -धीरे वहाँ से चली गई। मकान के बाहर आ कर उसने देखा क
भैरव आसरे म खड़ा है और बैलगाड़ी तैयार है। उसी रात को च मुखी अपने घर लौट
आयी। सबेरे उसने फर भैरव को बुला कर कहा—“भैरव, आज म कलक े जाऊँगी। तुम तो
जा नह सकोगे; इसिलए तु हारे लड़के को ले जाऊँगी। या कहते हो?”
भैरव ने कहा—“जैसी तु हारी इ छा। ले कन कलक े य जा रही हो माँ जी। वहाँ
कोई खास काम है?”
च मुखी ने कहा—“हाँ भैरव, एक खास काम है।”
“और माँजी, आओगी कब?”
“यह तो अभी नह कह सकती भैरव। शायद ज दी ही आऊँगी। देर भी हो सकती है।
और अगर लौट कर न आई तो यह सारा घर-बार तु हारा रहेगा।”
पहले तो भैरव अवाक हो गया, फर उसक आँख म जल भर आया। उसने कहा
—“माँ जी, आप यह कै सी बात कहती ह? अगर आप लौट कर नह आयगी तो इस गाँव के
लोग जीते न बचगे।”
च मुखी ने सजल ने से कु छ मु कराते ए कहा—“यह या भैरव! म तो दो ही
बरस से यहाँ आई ।ँ इसके पहले लोग जीते नह थे?”
इस बात का कोई उ र मूख भैरव न दे सका ले कन च मुखी ने मन-ही-मन सब कु छ
समझ िलया। भैरव का लड़का के वल ही उसके साथ जायेगा। जब वह गाड़ी पर ज री
सामान लाद कर सवार होने लगी तो गाँव भर क ि याँ और पु ष सभी देखने आये और
देख कर रोने लगे। खुद च मुखी क आँख म भी जल नह समाता था। कलक ा या
चीज है, अगर उसे देवदास के िलए न जाना होता तो कलक े क रानी का पद पाने के
िलए भी वह कभी न जाती।
कलक े प च
ँ कर दूसरे दन वह े मिण के घर जा प च
ँ ी। उसके पहले के मकान म
अब कोई और रहने लगा। े मिण अवाक हो गई—“अरे बहन, तुम इतने दन तक कहाँ
थी?”
च मुखी ने असली बात िछपा कर कहा—“म इलाहाबाद म थी।”
े मिण ने खूब अ छी तरह उसका सारा शरीर िनरख कर कहा—“तु हारे गहने
वगैरह या ए बहन?”
च मुखी ने हँसते ए सं ेप म—“सब ह।”
उसी दन उसने बिनये के साथ भट करके पूछा—“ य दयाल, अब मेरे और कतने
पये बाक िनकलते ह?”
दयाल बड़ी आफत म फँ सा। बोला—“यही कोई साठ-स र पये ह गे। आज नह तो
दो दन बाद दे दूग
ँ ा।”
“तु ह कु छ देना नह होगा, ले कन मेरा एक काम कर दो।”
“ या काम?”
“बस यही क तु ह कु छ मेहनत करनी पड़ेगी। हम लोग के मुह ले म एक मकान
कराये पर मुझे ले देना होगा—समझे?”
दयाल ने हँस कर कहा—“हाँ समझ गया।”
“जरा अ छा मकान हो। खूब अ छा िबछौना, त कये, चादर, रोशनी, त वीर, दो
कु सयाँ, एक मेज—समझ गये न?”
दयाल ने िसर िहला दया।
“शीशा, कं घी, दो जोड़ा रं गीन धोितयाँ, पहनने के िलए कु त और ब ढ़या िगलट कये
ए गहने कहाँ िमलते ह, जानते हो?”
दयाल ने पता बतला दया।
च मुखी ने कहा—“एक सेट िगलट के अ छे गहने भी देख कर खरीदने ह गे। म साथ
चल कर पस द कर लूंगी।” इसके बाद उसने कु छ हँस कर कहा—“हम लोग को जो कु छ
चािहए, सब जानते तो हो तुम। और एक दासी भी ठीक करनी होगी।”
दयाल ने पूछा—“यह सब कब तक चािहए?”
“िजतनी ज दी हो सके । दो-तीन दन म ही सब ठीक हो जाय तो अ छा है।” यह कह
कर च मुखी ने उसके हाथ म सौ पये का एक नोट देकर कहा—“देखो, सब चीज अ छी
लेना, कफायत के फे र म न पड़ना।”
तीसरे दन च मुखी अपने नये मकान म चली गई। उसने दन भर के वलराम के
साथ अपने मन के मा कफ मकान क सजावट क और शाम से कु छ पहले ही वह अपना
ृंगार करने बैठ गई। साबुन से मुँह धो कर पाउडर लगाया, अलता घोल कर पैर म
लगाया और पान खा कर ह ठ लाल कये। इसके बाद सारे शरीर म गहने पहन कर और
कु त डाँट कर रं गीन साड़ी पहनी। ब त दन के बाद के श-िव यास करके माथे पर िब दी
लगाई। फर शीशे म अपने आपको देख कर उसके मन-ही-मन हँसते ए कहा—इस फू टी
ई तकदीर म अभी न जाने और या- या बदा है!
देहाती बालक के वलराम ने अचानक यह नया साज- ृंगार और कपड़े-ल े देख कर
डरते ए पूछा—“दीदी, यह या?”
च मुखी ने हँसते ए कहा—“के वल, आज मेरे वर आयेगे!”
के वलराम च कत होकर देखता रह गया।
सं या के बाद े मिण उसके यहाँ िमलने आई। उसने पूछा—“बहन, यह सब या
है।” च मुखी ने मु कराते ए कहा—“ फर से यह सब चािहए न।”
े मिण ने कु छ देर तक देखते रहने के बाद कहा—“बहन क उमर िजतनी बढ़ रही
है, प भी उतना ही बढ़ रहा है!”
उसके चले जाने पर च मुखी ब त दन बाद फर पहले क ही तरह िखड़क के
पास जा बैठी। वहाँ से वह एकटक सड़क क तरफ देखती रही। बस यही उसका काम था,
इसी के िलए वह यहाँ रहेगी, बराबर यही करती रहेगी। शायद कभी कोई नया आदमी
आना चाहता है और ऊपर आ कर दरवाजा खटखटाता है। के वलराम मानो कं ठा कये ए
पाठ क तरह भीतर से कह देता है—यहाँ नह ।
कभी-कभी कोई पुरानी जान-पहचान वाला भी आ जाता है। च मुखी उसे बैठा कर
हंस-हंसकर बात करती है और बात -ह -बात म देवदास के िवषय म पूछती है, ले कन वह
कु छ बतला नह सकता है और वह उसे य ही िवदा कर देती है। जब अिधक रात बीत
जाती है तब खुद ही बाहर िनकल पड़ती है। मुह ले-मुह ले दरवाजे-दरवाजे घूमती- फरती
है। िछप कर दरवाजे-दरवाजे कान लगा कर बातचीत सुनना चाहती है। वह कह सुनाई
नह देता। कभी-कभी कोई मुँह ढँक कर अचानक उसके ब त पास आ जाता है और पश
करने के िलए हाथ बढ़ाता है। तब च मुखी घबरा कर पीछे हट जाती है। दोपहर को
अपनी पुरानी प रिचत सहेिलय के यहाँ घूमने चली जाती है। बात -ही-बात म
करती है—कोई देवदास को जानती हो?
वे लोग पूछती ह—कौन देवदास?
च मुखी उ सुक होकर प रचय देने लगती है—गोरा रं ग, िसर पर घुँघराले बाल,
माथे पर बाय तरफ एक चोट का िनशान। ब त बड़े आदमी ह। ब त पये खच करते ह।
पहचानती हो?
ले कन कोई पता नह बतला सकता। हताश िवष ण मुख से च मुखी घर लौट आती
है और ब त रात तक जागती ई सड़क क तरफ देखती रहती है। न द आने पर नाराज
होती है और मन-ही-मन कहती है—यह या मेरे सोने का समय है?
धीरे -धीरे एक महीना बीत गया। के वलराम भी घबरा गया। अब वयं च मुखी को
भी स देह होने लगा क शायद देवदास यहाँ नह है। तो भी आशा लगाये देवता के
चरण मे तन-मन से ाथना करती ई दन-पर- दन िबताने लगी।
उसे कलक े आये ए डेढ़ महीना हो गया। एक रात उसका भा य स आ। उस
समय रात के यारह बजे थे। यह उसका भा य ही था क उसने देखा—सड़क के कनारे एक
दरवाजे के सामने कोई आदमी मुँह-ही-मुँह म बड़बड़ा रहा है। च मुखी का कलेजा उछलने
लगा। यह कं ठ वर तो प रिचत है। लाख -करोड़ आदिमय म भी वह इस वर को
पहचान लेती। उस जगह कु छ अँधेरा था, ितस पर वह आदमी शराब के नशे म चूर होने के
कारण धा पड़ा आ था। च मुखी ने पास प च
ँ कर उसके शरीर पर हाथ रख कर पूछा
—“ य जी, तुम कौन हो? इस तरह य पड़े ए हो?”
उस आदमी ने कु छ गाने के सुर म कहा—“सुनो सखी, यह मन का मानस; पाऊँ अगर
िगरधर-सा वामी –”
अब च मुखी को स देह नह रह गया। उसने पुकारा—“देवदास!”
देवदास ने उसी तरह कहा—“ ।ँ ”
“यहाँ य पड़े हो? घर चलोगे?”
“नह । यह अ छा ।ँ ”
“थोड़ी शराब िपयोगे?”
“हाँ, पीयूँगा।” इतना कह कर उसने जोर से च मुखी का गला पकड़ िलया और कहा
—“भाई, तुम मेरे ऐसे िम कौन हो?”
च मुखी क आँख से आँसू बहने लगे। इसके बाद देवदास ने ब त प र म से
लड़खड़ाते ए उसका गला पकड़ कर कसी तरह उठ कर और उसके मुँह क ओर देख कर
कहा—“वाह! यह तो ब ढ़या चीज है देवदास!”
च मुखी के रोने म हँसी शािमल हो गई। उसने कहा—“हाँ, ब ढ़या चीज है। अब मेरे
क धे का सहारा ले कर जरा आगे बढ़ चलो। एक गाड़ी क ज रत तो होगी –”
“हाँ, ज रत य नह होगी!”
रा ता चलते-चलते देवदास ने
-क ठ से कहा—“सु दरी, तुम मुझे पहचानती
हो?”
च मुखी ने कहा—“हाँ, पहचानती ।ँ ”
देवदास ने गाकर कहा—“और लोग तो भूल गये ह भा य यही है म पहचानूँ।”
इसके बाद वह गाड़ी पर सवार होकर और च मुखी के क धे पर भार रख कर उसके
घर आ प च
ँ ा। दरवाजे के पास खड़े हो कर देवदास ने अपनी जेब म हाथ डाल कर कहा
—“सु दरी तुम मुझे रा ते से उठा तो लाय , पर मेरी जेब म तो कु छ भी नह है।”
च मुखी चुपचाप उसका हाथ ख चती ई अ दर ले गई और उसे िब तर पर लेटा
कर बोली—“अ छा, अब तुम सो जाओ।”
देवदास ने उसी कार भारी गले से कहा—“कोई मतलब है या? पर मने तो पहले
ही कह दया है क जेब खाली है, कु छ भी आशा नह ! समझ सु दरी।”
सु दरी पहले ही समझ चुक थी। बोली—“अ छा, कल दे देना।”
देवदास ने कहा—“इतना िव ास करना तो अ छा नह । या चाहती हो, साफ-साफ
तो कहो।”
च मुखी ने कहा, “कल क ग
ँ ी” और वह पास वाले कमरे म चली गई!
िजस समय देवदास क न द खुली, उस समय दन चढ़ आया था। कमरे म कोई नह
था।
च मुखी ान करके नीचे रसोई क तैयारी करने गई थी। देवदास ने देखा, वह पहले
कभी इस घर म नह आया है। वहाँ क एक भी चीज न पहचान सका। िपछली रात क
कोई बात भी उसे याद नह आई, बस कसी क सेवा का मरण हो आया, कसी ने ब त
ही ेहपूवक लाकर सुला दया है। उसी समय च मुखी ने कमरे म वेश कया। रात के
साज- ृंगार म उसने अब ब त-कु छ प रवतन कर िलया है। शरीर पर गहने ज र ह,
ले कन न तो रं गीन साड़ी है, न माथे पर िब दी है और न मुँह म पान क लाली। एक ब त
ही मामूली धोती पहने ए वह उस कमरे म आयी। देवदास उसके मुँह क ओर देख कर हँस
पड़ा—“कल कहाँ से डाका डाल कर मुझे ले आय ।”
च मुखी ने कहा—“डाका नह डाला, रा ते म पड़ा पाया, िसफ उठा लाई ।ँ ”
देवदास ने सहसा ग भीर होकर कहा—“अ छा, खैर, यह तो आ। ले कन तुमने यह
सब फर या शु कर दया? तु हारे शरीर पर तो गहने ही नह समाते। ये सब दये
कसने?”
च मुखी ने देवदास क ओर ती दृि से देख कर कहा—“ फर!”
देवदास ने हँस कर कहा—“नह -नह , सो नह कहता; जरा मजाक करने म भी या
हज है? आय कब?”
च मुखी ने कहा—“डेढ़ महीना आ।”
देवदास ने मन म ही कु छ िहसाब-सा लगाया। फर कहा—“जब हमारे मकान पर गई
थ , उसके बाद ही आई हो?”
च मुखी ने च कत हो कर पूछा—“तु हारे मकान पर गई थी-यह कै से मालूम आ?”
देवदास ने कहा—“तु हारे जाने के बाद ही म मकान गया था। जो दासी तु ह भाभी
के पास ले गई थी उसी से सुना क कल अशथझूरी गाँव से एक ी आई थी जो ब त ही
सु दरी थी। फर समझने म बाक या रह गया? ले कन इतने गहने फर से य
बनवाये?”
च मुखी ने कहा—“बनवाये नह ह, ये सब िगलट के ह। कलक े म आ कर खरीदे
ह। ले कन देखो, तु हारे िलए फर कतने पये बेकार खच करने पड़े! और ितस पर कल
मुझे पहचान भी न सके !”
देवदास हँस पड़ा और बोला—“पहचान तो िब कु ल न सका, ले कन सेवा को
पहचान गया! कई बार यान आया क मेरी च मुखी को छोड़ कर इतनी सेवा और कौन
कर सकता है!”
आन द के मारे च मुखी का रोने को जी चाहने लगा। कु छ देर तक चुप रहने के बाद
उसने कहा—“देवदास, अब तो मुझसे उतनी घृणा नह करते?”
देवदास ने उ र दया—“नह , बि क ेम करता ।ँ ”
दोपहर को ान करने के समय च मुखी ने देखा क देवदास के पेट पर फलालैन का
एक टु कड़ा बँधा आ है। उसने डर कर पूछा—“यह या? तुमने फलालैन य बाँधी है?”
देवदास ने जवाब दया—“पेट म कु छ दद-सा है। तुम इस तरह घबरा य रही हो?”
च मुखी ने कपाल ठ क कर कहा—“कह तुमने सवनाश तो नह कर डाला? कलेजे
म तो दद नह है?”
देवदास ने कहा—“च मुखी, जान पड़ता है क वही हो गया है।”
उसी दन डॉ टर ने भी आ कर ब त देर तक परी ा करके ठीक यही आशंका कट
क । दवा दी और जतलाया क अगर पूरी सावधानी न रखी जाएगी तो ब त अिन हो
सकता है। मतलब दोन ने ही समझ िलया। बासे पर खबर भेज कर धमदास को बुलाया
गया। दवा-दा के िलए पये मँगाये गये। दो दन इसी तरह बीत गये। तीसरे दन देवदास
को वर आ गया।
देवदास ने च मुखी को बुला कर कहा—“ब त अ छे समय पर आ गय —नह तो
फर देख ही न पात ।”
आँख प छ कर च मुखी जी-जान से सेवा करने लगी। उसने दोन हाथ जोड़ कर
ाथना क — भगवान, मने व म भी यह आशा नह क थी क म ऐसे असमय म इनके
इतने काम आऊँगी। ले कन तुम देवदास को अ छा कर दो।
लगभग एक मास से अिधक समय तक देवदास िब तर पर पड़ा रहा। इसके बाद वह
धीरे -धीरे अ छा होने लगा—बीमारी ब त यादा बढ़ न सक ।
एक दन देवदास ने कहा—“च मुखी, तु हारा नाम ब त बड़ा है। पुकारने म हमेशा
द त होती है। म उसे जरा छोटा कर लेना चाहता ।ँ ”
च मुखी ने कहा—“यह तो ब त अ छी बात है।”
देवदास बोला—“अ छा तो फर आज से म तु ह ‘ब ’ कह कर पुकारा क ँ गा।”
च मुखी हँस पड़ी। बोली—“माना क इस नाम से पुकारोगे, ले कन इसका कु छ
मतलब भी तो होना चािहए?”
“ या सभी बात का मतलब आ करता है? यह मेरी साध है।”
“अगर साध है तो पुकारा करो। ले कन या यह न बतलाओगे क यह साध य
ई?”
“नह , तुम कभी इसका कारण पूछ भी न सकोगी।”
च मुखी ने िसर िहला कर कहा—“अ छा, ऐसा ही सही।”
देवदास ब त देर तक चुप रहा। फर सहसा ग भीर भाव से पूछ बैठा—“अ छा ब
तुम मेरी कौन हो जो इतनी जी-जान से सेवा कर रही हो?”
च मुखी शरमा कर िसर झुकाने वाली वधू भी नह थी और भोली ब ी भी नह जो
बोलना न जानती हो। वह देवदास के चेहरे क तरफ ि थर और शा त दृि डाल कर कहने
लगी—“ या तुम अब भी यह समझ नह सके हो क तुम मेरे सव व हो?”
देवदास दीवार क तरफ देख रहा था। उसी तरफ नजर कये धीरे से कहने लगा
—“सो तो समझ सका ;ँ ले कन इसम वैसा आन द नह पाता। म पावती को कतना
चाहता ँ वह भी मुझे कतना चाहती है, ले कन फर भी उसे कतना क है! ब त-सा दुख
पाकर सोचा था क फर कभी इन सब फ दो म नह फँ सूँगा और अपनी इ छा से फँ सा भी
नह । ले कन तुमने ऐसा य कया? मुझे जबरद ती य बाँध िलया?” इसके बाद कु छ देर
तक फर चुप रह कर उसने कहा—“ब शायद तुम भी पावती क ही तरह क पाओगी।”
च मुखी आँचल से मुँह ढँक कर पलँग के एक कनारे चुपचाप बैठी रही।
देवदास ने फर कोमल वर से कहना शु कया—“तुम दोन म पर पर कतना
अ तर है, फर भी कतनी समानता है! एक आ मािभमािननी और उ त है; और दूसरी
कतनी शा त और कतनी संयत है! वह कु छ भी सहन नह कर सकती और तुम कतना
सहन करती हो! उसका कतना यश और कतना नाम है और तुम पर कतना कलंक है!
उससे सभी ेम करते ह और तुमसे कोई ेम नह करता! तो भी म तो तुमसे ेम करता ँ
ही।”
इसके बाद देवदास ने एक ठं डी साँस लेकर कहा—“म यह तो नह जानता क पाप
और पु य के िवचारकता तु हारा या िवचार करगे; ले कन अगर मृ यु के उपरा त फर
िमलना हो तो म कभी तुमसे दूर नह रह सकूँ गा।”
च मुखी ने चुपचाप रोते-रोते अपनी छाती आँसु से िभगो डाली। वह मन-ही-मन
ाथना करने लगी—भगवान, अगर कसी समय कसी ज म म इस पािप ा के पाप का
ायि
हो तो मुझे यही पुर कार देना!
लगभग दो महीने बीत गये ह। देवदास आरो य-लाभ कर चुका है, ले कन उसका शरीर
पूरी तरह से अ छा नह आ है, आबो-हवा बदलना ज री है। वह कल पि म क ओर
घूमने जायेगा। उसके साथ के वल धमदास रहेगा।
च मुखी पकड़ कर बैठ गई—“आिखर तु ह एक दासी क भी तो आव यकता होगी,
मुझे भी साथ चलने दो।”
देवदास ने कहा—“छी:, यह नह हो सकता। और चाहे जो क ँ , इतना अिधक
िनल नह हो सकता।”
च मुखी िबकु ल चुप हो गई। वह नादान नह थी, इसिलए सहज म समझ गई। और
चाहे जो हो, ले कन इस संसार म उसका स मान नह है। उसके सं पश से देवदास सुख
पायेगा, ले कन कभी स मान नह पा सकता। उसने आँसू प छ कर पूछा—“अब कब दशन
पाऊँगी?”
देवदास ने कहा—“कु छ कह नह सकता। ले कन, अगर जीता र ग
ँ ा तो तु ह कभी
नह भूलूँगा। तु ह देखने क तृ णा कभी न िमटेगी।”
णाम करके च मुखी हट कर खड़ी हो गई और बोली—“मेरे िलए यही ब त है। म
इससे अिधक क आशा नह करती।”
चलते समय देवदास ने और दो हजार पये च मुखी के हाथ म दे कर कहा—“इ ह
रखो। मनु य के शरीर का तो िव ास नह , अ त म या तुम मँझधार म डू बोगी?”
च मुखी ने यह भी समझा, इसिलए हाथ बढ़ा कर पये ले िलये। फर उसने आँख
प छ कर कहा—“एक बात मुझे बतलाते जाओ।”
देवदास ने उसके मुँह क ओर देख कर पूछा—“ या?”
च मुखी ने कहा—“बड़ी ब ने कहा था क तु हारे शरीर म बुरा रोग लग गया है,
सो या ठीक है?”
सुन कर देवदास दुखी आ। उसने कहा—“बड़ी ब सब-कु छ कह सकती है;
ले कन अगर वह होता तो या तु ह पता नह लगता? मेरी ऐसी कौन-सी बात है जो तुम
नह जानत ? एक बात म तो तुम पावती से भी बढ़ कर हो।”
च मुखी ने फर आँख प छ कर कहा—“चलो, खै रयत ई, जान बची। ले कन फर
भी ब त सावधानी से रहना। एक तो तु हारा शरीर य ही खराब है। ितस पर देखो, कसी
दन कह भूल न कर बैठना।”
इसके उतर म देवदास िसफ हंसा; कु छ बोला नह ।
च मुखी ने कहा—“एक िभ ा और माँगती ।ँ अगर तु हारा शरीर जरा भी खराब
हो तो मुझे खबर दोगे न?”
देवदास ने उसके मुँह क ओर देख कर और िसर िहला कर कहा—“दूग
ँ ा य नह
ब ?”
फर एक बार णाम करके च मुखी रोती ई दूसरे कमरे म चली गयी।
सोलहवाँ प र छे द
कलक ा छोड़ने के बाद देवदास ने कु छ दन तक इलाहाबाद म िनवास कया था। तभी
उसने अचानक एक दन च मुखी को प िलखा था—“ब मने सोचा था क अब म कभी
ेम न क ँ गा। एक तो ेम करके खाली हाथ लौट आना ही ब त क दायक होता है, ितस
पर कसी को अपना कर ेम करने के य के समान िवड बना इस संसार म और कोई
नह है।”
इसके उ र म च मुखी ने या िलखा था, यह जानना ज री नह है। ले कन उन
दन देवदास को बार-बार खयाल आता था क अगर वह एक बार आ जाय तो कै सा हो?
फर तुर त ही डरता आ सोचता क नह , नह , ज रत नह —अगर पावती को पता लग
गया! इस तरह बारी-बारी से एक बार पावती और एक बार च मुखी उसके दय-रा य
म िनवास करती। कभी-कभी उसके दय-पट पर इन दोन के ही मुख पास-पास िचि त
हो जाते—मानो दोन म पर पर ब त ेह हो गया है।
उसके मन म दोन ही पास-पास िवराजत । कभी-कभी तो िबलकु ल अचानक ही उसे
ऐसा जान पड़ता क वे दोन ही सो गयी ह। उस समय उसका मन इतना सूना हो जाता क
िसफ एक िनज व अतृि ही उसके मन म िम या ित विन क तरह घूमती- फरती। उसके
बाद देवदास लाहौर चला गया। वहाँ चु ी लाल कोई काम-काज करता था। खबर पाने पर
वह िमलने के िलए आया। ब त दन के बाद दोन िम एक-दूसरे को देख कर लि त ए
और सुखी भी ए। उसक संगत म देवदास फर शराब पीने लगा। उसे च मुखी का यान
आता क उसने शराब पीने के िलए मना कर दया था। उसे यान आता क उसम कतनी
अिधक बुि है! वह कतनी शा त और धीर है! और वह कतना ेह करती है! पावती इस
समय सो गयी थी—के वल बुझती ई दीपिशखा क तरह कभी-कभी जल उठती। ले कन
लाहौर का जलवायु देवदास को सहन नह आ। बीच-बीच म तबीयत खराब हो जाती।
पेट के पास फर मानो कु छ दद-सा जान पड़ता। धमदास ने एक दन रोते ए कहा
—“देवता, तु हारा शरीर फर खराब हो रहा है, और कह चलो।”
देवदास ने अनमनेपन से उ र दया—“अ छा चलो।”
देवदास अमूमन अपने डेरे पर शराब नह पीता था। चु ी लाल के आने पर कसी
दन पीता था, कसी दन बाहर चला जाता था। जब रात बीतने को होती तब घर लौट
आता और कसी- कसी रोज िब कु ल ही नह आता था। आज अचानक दो दन से उसक
शकल ही नह दखाई दी। रो-रो कर धमदास ने अ -जल तक का पश नह कया। तीसरे
दन देवदास बुखार ले कर घर लौटा। िब तर पर पड़ गया और उठ न सका। तीन-चार
डॉ टर आ कर उसक िच क सा करने लगे।
धमदास ने कहा—“देवता, काशी म माँ के पास खबर भेजे देता ।ँ ”
देवदास ने ज दी से बीच म ही रोक कर कहा—“छी: छी:, भला माँ को म यह मुँह
दखला सकता !ँ ”
धमदास ने ितवाद कया—“रोग-शोक तो सभी के साथ लगे ह। ले कन या
इसिलए इतनी बड़ी िवपि के समय माँ से भी मुँह िछपाना चािहए? देवता, तु हारे िलए
कोई ल ा क बात नह है, काशी चलो।”
देवदास ने मुँह फे र कर कहा—“नह धमदास, म ऐसे समय उनके पास नह जा
सकूँ गा। पहले अ छा हो लूँ तब चलूँगा।”
धमदास ने एक बार सोचा क च मुखी का िज क ँ । ले कन वह वयं ही उससे
इतनी अिधक घृणा करता था क उसका यान आते ही वह चुप हो गया।
खुद देवदास को भी अ सर उसक याद आती थी, ले कन उसे कु छ कहने क इ छा
नह होती। इसिलए कोई भी न आया। इसके बाद कु छ दन म वह धीरे -धीरे अ छा होने
लगा। एक दन वह उठ कर बैठ गया और बोला—“चलो धमदास, अब और कह चल।”
“भइया और कह चलने क ज रत नह । अब या तो घर चलो और या माँ के पास
चलो।”
सब सामान बाँध कर और चु ी लाल से िवदा लेकर देवदास फर इलाहाबाद आ
प च
ँ ा। शरीर ब त कु छ अ छा था। कु छ दन तक वहाँ रहने के बाद एक दन उसने
धमदास से कहा—“धम, कसी नई जगह य न चला जाय? कभी ब बई नह देखी,
चलोगे?''
देवदास का आ ह देख कर इ छा न होने पर भी धमदास ने चलने क राय दे दी। जेठ
का महीना था। ब बई म उतनी यादा गरमी नह पड़ती। वहाँ प च
ँ कर देवदास का
शरीर और भी अ छा हो गया।
धमदास ने पूछा—“अब घर य न चला जाय?”
देवदासने कहा—“नह , ब त मजे म ।ँ यह और कु छ दन तक र ग
ँ ा।”
एक बरस बीत गया। भाद के महीने म एक दन सबेरे धमदास के क धे का सहारा ले कर
देवदास ब बई के एक अ पताल से िनकला और अपने डेरे पर आ कर बैठा। धमदास ने
कहा—“देवता, म तो कहता ँ क अब माँ के पास चलना ही ठीक है।”
देवदास क आँख म जल भर आया। आज कई दन से उसे के वल माँ ही याद आ रही
है। अ पताल म पड़े-पड़े वह ाय: यही सोचता रहा है क इस संसार मेरे सभी ह, फर भी
कोई नह है। मेरी माँ ह, बड़े भाई ह, बहन से भी बढ़ कर पावती है, च मुखी भी है। उसके
सभी ह, ले कन वह कसी का नह है। धमदास भी उस समय रो रहा था, बोला—“तो फर
य भइया, माँ के पास चलना ही ठीक आ न?”
देवदास ने मुँह फे र कर आँसू प छे और कहा—“नह धमदास, माँ को मुँह दखलाने
क इ छा नह होती। मुझे अब भी जान पड़ता है क वह समय नह आया है।”
वृ धमदास िबलख-िबलख कर रोने लगा और बोला—“भइया, माँ तो अब भी
जीत ह!”
इस बात ने कतना भाव कािशत कया, अ तर म दोन ने ही उसका अनुभव कया।
देवदास क अव था ब त ही खराब हो गई है। सारा पेट ित ली और िजगर से भर गया है
और उस पर बुखार और खाँसी भी है। रं ग गहरा काला हो गया है। शरीर हि य का ढाँचा
भर रह गया है। आँख िब कु ल धँस गई ह—बस एक अजीब-सी अ वाभािवक उ वलता से
चमक रही ह। िसर के बाल खे और सीधे हो गये ह, जो य करने पर शायद िगने भी
जा सक। हाथ क उँ गिलय क तरफ देखने से घृणा होती है—एक तो सूखी ई, ितस पर
दाग-ध ब से दूिषत। टेशन प च
ँ ने पर धमदास ने पूछा—“देवता, कहाँ का टकट लूँ?”
देवदास ने कु छ सोच-समझ कर कहा—“चलो, घर चल। उसके बाद देखा जायेगा।”
गाड़ी का समय आने पर वे गली का टकट खरीद कर सवार हो गये। धमदास
देवदास के पास ही रहा। स या से कु छ पहले ही देवदास क आँख जलने लग और उसे
फर वर हो आया। उसने धमदास को बुला कर कहा—“धमदास, घर प च
ँ ना भी शायद
क ठन होगा।”
धमदास ने डरते ए पूछा—“ य भइया?”
देवदास ने हँसने क कोिशश करते ए इतना ही कहा—“धमदास, मुझे फर वर हो
आया है।”
गाड़ी िजस समय काशी के रा ते से आगे बड़ी, उस समय देवदास वर म बेहोश पड़ा
था। पटना के पास प च
ँ ने पर उसे कु छ होश आ। उसने कहा—“देखा धमदास, माँ के पास
प च
ँ ना तो सचमुच ही न हो सका।”
धमदास ने कहा—“चलो भइया, हम लोग पटने म उतर कर कसी डा टर को
दखला ल।”
उ र म देवदास ने कहा—“नह , रहने दो, चलो हम लोग घर ही चल।”
गाड़ी िजस समय पांडुआ टेशन पर प च
ँ ी, उस समय तड़का हो गया था। सारी रात
पानी बरस कर अब ब द हो गया है। देवदास उठ कर खड़ा हो गया। नीचे धमदास सोया
आ है। उसने धीरे से एक बार उसका माथा छु आ; ले कन मारे ल ा के जगा न सका।
इसके बाद दरवाजा खोल कर वह धीरे से बाहर िनकल आया। गाड़ी सोये ए धमदास को
लेकर आगे बढ़ गई। देवदास काँपता आ टेशन के बाहर िनकला। एक घोड़ा-गाड़ी के
गाड़ीवान को बुला कर कहा—“ य भाई, हाथीपोता ले चलोगे?”
गाड़ीवान ने एक बार मुँह क ओर देखा और एक बार इधर-उधर देखा। इसके बाद
कहा—”नह बाबू जी, रा ता अ छा नह है। इस बरसात म घोड़ा-गाड़ी वहाँ न जा
सके गी।”
देवदास ने उि होकर पूछा—“पालक िमलेगी?”
गाड़ीवान ने कहा—“नह ।”
आशंका के कारण देवदास वह बैठ गया—तो या वहाँ जाना न हो सके गा। उसके
मुख पर ही उसक अि तम अव था गाढ़ प से अं कत थी िजसे एक अ धा भी पड़ सकता
था।
गाड़ी वाले ने दया करते ए पूछा—“बाबू जी, कोई बैलगाड़ी ठीक कर दू?ँ ”
देवदास ने पूछा—“ कतनी देर म प च
ँ ेगी।”
गाड़ीवान ने कहा—“बाबू जी, रा ता ठीक नह है। शायद दो दन लग जायगे।”
देवदास मन-ही-मन िहसाब करने लगा, या दो दन तक म जीता र ग
ँ ा? ले कन
पावती के पास तो जाना ही होगा। उसे ब त दन क ब त-सी झूठी बात और ब त-सा
नकली वहार याद हो आया। ले कन आिखरी बार का वह वादा तो सच करना ही होगा।
चाहे िजस तरह हो, एक बार उससे अि तम भट करनी ही होगी। ले कन इस जीवन क
िमयाद तो और अिधक बाक नह है! यही तो बड़े भारी डर क बात है!
िजस समय देवदास बैलगाड़ी पर बैठा, उस समय माँ क याद हो आने पर उसक
आँख से आँसू फू ट िनकले और ेह से कोमल एक और मुख आज जीवन के इस अि तम ण
म अ य त पिव होकर दख पड़ा—वह मुख था च मुखी का। पािप ा समझ कर िजससे
हमेशा घृणा क है, आज उसी क छिव अपनी माता के पास साफ-साफ देख कर उसक
आँख से झर-झर आँसू बहने लगे। इस ज म म उससे भट न होगी; और शायद ब त दन
तक तो वह खबर भी न पा सके गी। फर भी पावती के पास ही चलना होगा। देवदास ने
शपथ क थी क एक बार अव य भट क ँ गा। आज वह ित ा पूरी करनी ही होगी।
रा ता अ छा नह है। रा ते म कह बरसात का जल जमा है और कह रा ता ही टू ट गया
है। क चड़ से सारा रा ता भरा आ है। बैलगाड़ी धीरे -धीरे चलने लगी। कह गाड़ीवान को
उतर कर पिहया ढके लना पड़ता है और कह दोन बैल पर िनदयतापूवक हार करना
पड़ता है। चाहे िजस तरह हो, वह सोलह कोस रा ता तै करना ही होगा। - करती ई
ठं डी हवा चल रही है। आज भी उसे स या के बाद ब त जोर से बुखार चढ़ आया। उसने
डरते ए पूछा—“गाड़ीवान, अभी और कतना रा ता बाक है?”
गाड़ीवान ने कहा—“बाबूजी, अब भी आठ-दस कोस है।”
“ज दी चलो भइया, तु ह ब त इनाम दूग
ँ ा।”
जेब म सौ पये का एक नोट था। उसे ही दखा कर कहा—“सौ पये दूग
ँ ा। ज दी ले
चलो।”
इसके बाद देवदास को इस बात का पता भी न चल सका क वह सारी रात कै से और
कधर से हो कर बीती। वह िब कु ल बेसुध और बेहोश पड़ा रहा। सबेरे होश आने पर पूछा
—“अरे , अभी और कतनी दूर है? या यह खतम ही न होगा?”
गाड़ीवान ने कहा—“अभी छ: कोस और है?”
देवदास ने ठं डी साँस ले कर कहा—“जरा ज दी चलो भइया, अब समय नह है।”
गाड़ीवान कु छ भी न समझ सका, ले कन नये उ साह से बैल को मारता और गालीगलौज करता आ बढ़ने लगा। गाड़ी जी-जान से चल रही थी और अ दर देवदास छटपटा
रहा था। वह के वल यही सोचता था क भट होगी तो? म प च
ँ तो जाऊँगा? दोपहर के
समय गाड़ी रोक कर गाड़ीवान ने बैल को कु छ चारा दया और खुद भी कु छ खा कर फर
बैठ गया। उसने पूछा—“बाबू जी, आप कु छ नह खायगे?”
“नह भाई, ले कन मुझे यास ब त लगी है। जरा पानी िपला सकते हो?”
उसने रा ते के पास ही के एक तालाब से थोड़ा-सा पानी ला दया। शाम के बाद वर
के साथ देवदास क नाक म से बूँद-बूँद करके खून िगरने लगा। उसने खूब जोर से नाक दबा
ली। इसके बाद जान पड़ा क दाँत के पास से खून बाहर िनकल रहा है, साँस भी शायद
कने लगी है। उसने हाँफते ए पूछा—“अब और कतनी दूर है?”
गाड़ीवान ने कहा—“अब दो कोस और होगा। रात के दस बजे तक प च
ँ जायगे।”
देवदास ने ब त ही क से िसर उठा कर रा ते क तरफ देखा- भगवन्!
गाड़ीवान ने पूछा—“बाबू जी, आप ऐसे य कर रहे ह?”
देवदास इस बात का जवाब भी न दे सका। गाड़ी चलने लगी, ले कन रात को दस बजे
नप च
ँ कर करीब बारह बजे हाथीपोता के जम दार के मकान के सामने पीपल के तले
प च
ँ कर खड़ी हो गई।
गाड़ीवान ने पूछ कर कहा—“बाबूजी, उतर आइए!”
कोई उ र नह । फर पुकारा, ले कन फर भी कोई उ र नह । तब वह डर कर
लालटेन मुँह के पास ले गया—“बाबू जी, या सो गये?”
देवदास देख रहा है, उसने ह ठ िहला कर कु छ कहा, ले कन कोई श द न िनकला।
गाड़ीवान ने फर पुकारा—“ओ बाबू जी!”
देवदास ने हाथ उठाना चाहा, ले कन वह न उठ सका। हाँ, उसक आँख के कोने से
दो बूँद आँसू िगर पड़े। गाड़ीवान ने तब अ ल खच करके , पीपल के नीचे बने ए प े थाले
पर कु छ घास-पात िबछा कर एक िबछौना तैयार कर दया और इसके बाद ब त क से
देवदास को उठा कर उसी पर ला सुलाया। बाहर कोई नह है; जम दार का मकान
िन त ध और सोया आ है। देवदास ने ब त क से जेब म से सौ पये का नोट िनकाल
कर दे दया। लालटेन क रोशनी म गाड़ीवान ने देखा क बाबू साहब उसक तरफ देख रहे
ह, ले कन कु छ कह नह सकते ह। उसने अव था का अनुमान करके नोट अपनी चादर के
प ले म बाँध िलया। देवदास छाती तक शाल से िलपटा आ है, सामने लालटेन जल रही है
और नया िम पैर के पास बैठा आ सोच रहा है।
सबेरा आ। उस समय जम दार के मकान से कु छ लोग बाहर िनकले। उ ह ने एक
आ यजनक दृ य देखा। पेड़ के नीचे एक आदमी मर रहा है—भला आदमी! बदन पर शाल
है, पैर म ब त ब ढ़या चमचमाते जूते और हाथ म अँगूठी है। एक-एक करके ब तसे लोग
जमा हो गये। धीरे -धीरे भुवन बाबू के कान तक यह बात प च
ँ ी। एक आदमी से डॉ टर
को बुला लाने के िलए कह कर वे वयं आ प च
ँ ।े देवदास ने सभी लोग क तरफ देखा,
ले कन उसका गला ँ ध गया था। वह मुँह से एक बात भी न कह सका। बस, उसक आँख
से जल बहने लगा। गाड़ीवान जो कु छ जानता था, वह सब उसने कह सुनाया। ले कन उससे
कसी खास बात का पता न चला। डॉ टर ने आकर देखा और कहा—“उ व ास चल रहा
है। अभी मर जायगा।”
सभी लोग ने कहा—हाय हाय!
ऊपर बैठी ई पावती ने भी यह कहानी सुन कर कहा—हाय हाय।
एक आदमी दया करके उसके मुँह म थोड़ा-सा जल दे गया। देवदास ने एक बार क ण
दृि से उसक ओर देखा और उसके बाद आँख ब द कर ल । कु छ देर तक और भी साँस
लेता रहा। ले कन उसके बाद सभी बात का अ त हो गया। अब यह तक होने लगा क
इसका दाह कौन करे गा, इसे कौन छु एगा और यह कौन जात है? भुवन बाबू ने पास के थाने
म खबर भेजी। इ पे टर आ कर जाँच करने लगा। ित ली और िजगर के कारण मृ यु ई
है, नाक और मुँह म खून के दाग ह। जेब से दो प िनकले। एक म तालसोनापुर के ि जदास
मुकज ने ब बई के देवदास को िलखा था—अभी पये नह भेजे जा सकते।
दूसरे प म काशी क ह रमती देवी ने देवदास मुकज को िलखा है-अब तु हारी
तबीयत कै सी है?
बाय हाथ पर अं ेजी म नाम के पहले अ र गुदे ह—डी.डी.। इ पे टर साहब ने
जाँच करके कहा—“हाँ, यह आदमी देवदास ही है।”
हाथ म नीलम क एक अँगूठी—दाम करीब डेढ़-सौ पया, बदन पर एक जोड़ी शाल,
दाम करीब दो-सौ पये। इसके िसवा कोट, धोती आ द सभी चीज िलख ल । चौधरी
महाशय और महे नाथ दोन ही उपि थत थे। तालसोनापुर नाम सुन कर महे नाथ ने
कहा—“यह तो छोटी माँ के मैने के का आदमी है। वे अगर देख...”
चौधरी महाशय ने िबगड़ कर कहा—“वे या यहाँ मुरदे क िशना त करने आयगी?”
दारोगा ने हँसते ए कहा—“पागल और कसे कहते ह!”
ा ण क लाश होने पर भी गाँव-देहात म कोई उसे छू ने को राजी नह आ।
इसिलए चा डाल आ कर उसे उठा ले गये। उन लोग ने कसी सूखे ए ताल के कनारे
अधजला करके फक दया। कौवे और िग आ कर उस पर बैठ गये, गीदड़ और कु े उस
शव के िलए आपस म लड़ाई-झगड़ा करने लगे। तो भी िजस कसी ने सुना, यही कहा—
हाय हाय। दािसयाँ और नौकर-चाकर भी आपस म बात करने लगे—हाय हाय। भला
आदमी था। दो सौ पये का शाल था! डेढ़ सौ पये क अँगूठी थी! वे सब चीज अब
दारोगा के पास ह। ये दोन िच ट् ठयाँ भी उसी ने अपने पास रख ली ह।
यह खबर सबेरे ही पावती के कान तक प च
ँ गई; ले कन आजकल वह कसी बात
पर अ छी तरह यान नह दे सकती, इसिलए इस मामले को ठीक-ठीक नह समझ सक ।
ले कन जब सभी लोग के मुँह पर यह बात चढ़ गई तब पावती ने भी िवशेष प से सुनी
और स या से कु छ पहले एक दासी को बुला कर पूछा—“ या आ है री? कौन मरा है?”
दासी ने कहा—“हाय हाय! ब जी, कोई भी तो नह जानता। पूव ज म क िमट् टी
खरीदी ई थी, इसीिलए यहाँ के वल मरने को आया था। इस जाड़े-पाले म रात से ही पड़ा
आ था। आज सवेरे नौ बजे मरा है।”
पावती ने ल बी साँस ले कर पूछा—“हाय हाय! कु छ भी पता नह चला क कौन
था?”
दासी ने कहा—“ब जी, महे बाबू जानते ह, म इतना नह जानती।”
महे बुलाया गया। उसने आ कर कहा—“तु हारे ही यहाँ के देवदास मुकज थे।”
पावती ने महे के ब त पास िखसक कर उसे तीखी नजर से देखते ए पूछा—
“कौन, देव दा? कै से जाना?”
“जेब म दो िच ट् ठयाँ थ ? एक ि जदास मुकज क िलखी ई थी...”
पावती ने रोक कर कहा—“हाँ, उसके बड़े भाई।”
“और एक काशी क ह रमती देवी क िलखी ई थी...”
“हाँ वे माँ ह।”
“हाथ म गोदने का नाम िलखा आ था...”
“पहले कलक े गये थे, तब वहाँ िलखवाया था।”
“नीलम क एक अँगूठी थी...”
“हाँ, जनेऊ के समय ताया जी ने उ ह दी थी। म जाती .ँ ..”
यह कहती-कहती पावती दौड़ी ई नीचे क तरफ बढ़ी।
महे ने हत-बुि हो कर पूछा—“अरी माँ, कहाँ जा रही हो?”
“देव दा के पास।”
“वे तो अब नह ह। उ ह तो डोम उठा ले गये।”
“अरी, मइया री मइया!” कहती ई पावती रोती ई दौड़ी। महे ने दौड़ कर
सामने रा ता रोक कर कहा—“तुम या पागल हो गई हो माँ, कहाँ जाओगी?”
पावती ने महे क ओर देख कर कहा—“महे , या सचमुच तुमने मुझे पागल
समझ िलया है? रा ता छोड़ो।”
उसक आँख को देख कर महे ने रा ता छोड़ दया और वह चुपचाप पीछे-पीछे
चलने लगा। पावती बाहर िनकल गई। उस समय बाहर नायब गुमा ते काम कर रहे थे।
उ ह ने देखा। चौधरी महाशय ने च मे के ऊपर से देख कर पूछा—“कौन जा रहा है?”
महे ने कहा—“छोटी माँ।”
“यह या? कहाँ जाती ह?”
महे ने कहा—“देवदास को देखने!”
भुवन चौधरी िच ला उठे —“ या तुम सब लोग पागल हो गये हो! पकड़ो, पकड़ो,
पकड़ लाओ। पागल हो गई ह। ओ महे ! ओ छोटी ब !”
इसके बाद दासी-चाकर ने िमल कर धर-पकड़ करके पावती का मू छत शरीर ख च
कर घर के अ दर ला रखा। दूसरे दन मुछा तो दूर हो गई, ले कन वह बोली-चाली कु छ भी
नह । एक दासी को बुला कर िसफ इतना ही पूछा—“रात को आये थे न?
इसके बाद पावती फर चुप हो गई।
इसके बाद पावती का या हाल आ और वह कस तरह है, सो नह मालूम; जानने क
इ छा भी नह होती। िसफ देवदास के िलए ब त ही दुःख हो रहा है। तुम लोग म से जो
कोई यह कहानी पड़ेगा, वह भी शायद हमारी ही तरह दुखी होगा। तो भी अगर कभी
देवदास सरीखे कसी अभागे असंयमी और पापी के साथ तु हारा प रचय हो तो उसके
िलए कु छ ाथना करना। ाथना यह करना क और चाहे जो हो, ले कन उसक तरह
कसी क मृ यु न हो। मरने म तो कोई हज नह है। ले कन ऐसा हो क उस समय एक
ेहपूण हाथ का पश उसके माथे तक प च
ँ े और एक क णा
ेहपूण मुख देखते-देखते
इस जीवन का अ त हो। मरने के समय वह कसी क आँख का एक बूँद जल देख कर मर
सके ।
शरतच
च ोपा याय का च चत उप यास
शेष
शरतच
च ोपा याय
बीसव सदी के ारि भक दौर म बांगला समाज म जहाँ नारी को मुँह खोलने क आजादी
नह थी. उस प रवेश म जब कमल अलग—अलग मु पर अपने पित से
करती है तो
उसे यह फू टी आँख नह भाता। वत िवचार वाली मुँहफट कमल का हर
पु ष के
नारी के ऊपर वािम व क न व पर चोट प च
ँ ाताह है | जैस —जैस कमल के
बढ़ते ह,
उसके और उसके पित िशवनाथ, िजससे वह पुरे रीित — रवाज से याही भी नह है के
बीच टकराव और तनाव बढ़ता जाता है और कमल अपने अलग रा ते पर िनकल जाती है|
ISBN:9788174831774
पृ :285
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रवी नाथ टै गोर का च चत उप यास
चोखेर बाली
रवी नाथ टै गोर
रवी नाथ टैगोर का उप यास चोखेर बाली हंदी म आँख क कर करी के नाम से
चिलत है। ेम, वासना, दो ती और दा प य–जीवन क भावना के भंवर म डू बते–
उतराते चोखर बाली के पा —िबनो दनी, आशालता, महे और िबहारी—क यह
मा मक कहानी है। 1902 म िलखा गु देव रवी नाथ टैगोर का यह उप यास मानवीय
भावना औप उस समय के बंगाल के समाज का जीता–जागता िच ण तुत करता है
और इसिलए उनका सबसे उ कृ उप यास माना जाता है। िजस पर इसी नाम से फ म
भी बन चुक है।
ISBN: 9789350643600
पृ : 192
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रवी नाथ टै गोर का च चत उप यास
गोरा
रवी नाथ टै गोर
रवी नाथ टैगोर का यह उप यास बीसव सदी के ारि भक वष के बंगाल पर के ि त है
और उस समय के समाज, राजनीित और धम क वा तिवक त वीर तुत करता है। जहाँ
एक तरफ रा ीयता क भावना बल हो रही थी वह ाचीन आ याि मक मू य का
पुन थान हो रहा था। एक तरफ गितवादी रा वादी थे िजनका सपना था क देश क
गित मे सभी का समावेश हो वह क रपंथी स ा के पुराने ढाँचे को कायम रखना चाहते
थे। इन दोन प को उप यास के नायक गोरा और उसके दो त के मा यम से बड़ी
कु शलता से तुत कया गया है। इन दोन से जुडे अलग —अलग पा के मा यम से और
भी कई कहािनयाँ, मु य कहानी के साथ. बुनी गई ह और उनके ज रये उस समय के अनेक
ासंिगक िवषय पर रोशनी डालने का यास है िजसम शािमल है समाज से औरत का
बिह कार, िविभ जाितय का आपसी टकराव — इन सब मु
उप यास के पा वयं को ढू ंढने का यास करते ह।
के भवर से गुजरते
ISBN:9789350643594
पृ : 432
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