अब मादक कातिल नैनों के , इस आडम्बर से बचिा हूँ | कभी दरवाज़ों में छु पिा हूँ, कभी एहसासों में जलिा हूँ | िेरी साूँसों की इस तसरहन में, मैं बसिा हूँ, मैं बहिा हूँ | मुझे आसति की आूँखों से, क्यों िकिी रहिी यों िुम हो, ककसी चचिंगारी सा बुझ जाऊिं; या अिंगारा मैं बन जाऊिं | इन कागज़ की दीवारों को, धूतमल यों करिा मैं जाऊिं | िू कहिी - कहिी मुस्काए, मैं हिंसिे - हिंसिे तमट जाऊिं... मैं हिंसिे - हिंसिे तमट जाऊिं... “वैभव”