गीता का सार राधा रानी जो वृंदावन की महारानी है राजा वषभानु की पुत्री है और भगवान कष्ण की अत्यृंत प्रिय है भगवत गीता को गी-तोउपप्रनषद भी कहा जाता है प्रजस िकार हम प्रमत्र की सलाह से औषप्रध नहीं ले सकते इसी िकार भगवत गीता को इसके वक्त द्वारा ददए गए प्रनदेशानुसार ही ग्रहण यह स्वीकार करना चाप्रहए भगवत गीता के वक्ता भगवान श्री कष्ण है भगवत गीता की योग पद्धप्रत सवविथम सूयोदय को बताई गई सूयव देव ने इसे मनु को बताया और मनु ने इसे इक्ष्वाकु को बताया इस िकार गुरु परृं परा द्वारा यह योग पद्धप्रत एक वक्ता से दूसरे वक्ता तक पहुँचती रही भक्त का भगवान के मध्य पाृंच िकार का सृंबृंध हो सकता है 1 2 3 4 5 कोई कोई कोई कोई कोई प्रनप्रष्िय अवस्था में भक्त हो सकता है सदिय अवस्था में भक्त हो सकता है सखा रूप में भक्त हो सकता है माता या प्रपता के रूप में भक्त हो सकता है दृंपप्रि िेमी के रूप में भक्त हो सकता है अजुवन का कष्ण से सृंबृंप्रधत सखा रूप में था लाखों-करोडों जीव में से ित्येक जीव का भगवान के साथ प्रनत्य प्रवप्रशष्ट सृंबृंध है यह स्वरूप कहलाता है भप्रक्त योग की िदिया द्वारा यह स्वरूप जागत दकया जा सकता है तब यह अवस्था स्वरूप प्रसप्रद्ध कहलाती है भगवान से भगवत गीता सुनने के बाद अजुवन ने कष्ण को परमब्रह्मा स्वीकार कर प्रलया ित्येक जीव ब्रह्म है लेदकन परम पुरुषोिम भगवान परम ब्रह्मा है परमधाम का अथव है दक वे समूह के परम आश्रया धाम है पप्रवत्रम का अथव है वह परम भोक्ता है शाश्वत अथावत आदद ,सनातन ददव्यम अथावत ददव्य आदद देवम - भगवान , अजम अथावत अजन्मा तथा प्रव भूम अथावत महानतम है भगवत गीता का ियोजन मनुष्य को भौप्रतक सृंसार के अज्ञान से उभारना है ित्येक व्यप्रक्त अनेक िकार की कठिनाइयों में फृं सा रहता है हमारा अप्रस्तत्व सनातन है लेदकन हम दकसी न दकसी कारण से असत में डाल ददए गए हैं असत का अथव है प्रजसका अप्रस्तत्व नहीं है ब्रह्म प्रजज्ञासा से आशय-उन मनुष्यों से है जो वास्तव में यह जानने के प्रलए प्रजज्ञासा हैं दक वह क्या है, वह इस प्रवषम प्रस्थप्रत में क्यों डाल ददए गए हैं, जब तक मनुष्य को अपने कष्टों के प्रवषय में प्रजज्ञासा नहीं होती जब तक उसे यह अनुभूप्रत नहीं होती दक वह कष्ट भोगना नहीं अप्रपतु सारे कष्टों का हल ढू ृंढना चाहता है मानवता तभी शुरू होती है जब मन में इस िकार की प्रजज्ञासा उददत होती है ऐसे मनुष्य जो यह जानना चाहते हैं , या वे कहाृं से आए हैं और मत्यु के बाद कहाृं जाएृंगे वहीं भगवत गीता को समझने के सुपात्र प्रवद्याथी हैं इस िकार जब मनुष्य अपने वास्तप्रवक ियोजन को भूल जाता है तो भगवान कष्ण प्रवशेष रूप से उसी उद्देश्य की पुनस्थावपना के प्रलए अवतार लेते हैं भगवद्गीता की प्रवषय वस्तु में पाृंच मूल सत्य का ज्ञान प्रनप्रहत है ईश्वर, जीव, िकप्रत, काल, तथा कमव इन सब की व्याख्या भगवत गीता में हई है ईश्वर का अथव प्रनयृंता है और जीवो का अथव प्रनयृंप्रत्रत है अतएव भगवत गीता की प्रवषय वस्तु ईश्वर सवोच्च- प्रनयृंता तथा जीव प्रनयृंप्रत्रत जीव आत्मा से सृंबृंप्रधत है इसमें िकप्रत ( भौप्रतक िकप्रत), काल ( समस्त ब्रह्माृंड की काल प्रवप्रध या िकप्रत का िाकट्य) तथा कमव कायवकलाप की व्याख्या है भगवत गीता से हमें यह सीखना चाप्रहए ईश्वर क्या है, जीव क्या है, िकप्रत क्या है, दश्य जगत क्या है ,यह काल द्वारा दकस िकार प्रनयृंप्रत्रत दकया जाता है और जीवो के कायवकलाप क्या है जीव गुणों में परम प्रनयृंता के समान है भगवान भौप्रतक िकप्रत के समस्त कायों के ऊपर प्रनयृंत्रण रखते हैं भौप्रतक िकप्रत स्वतृंत्र नहीं है वह परमेश्वर के प्रनदेशन में कायव करती है अथावत हम जो भी आश्चयवजनक घटनाएृं घठटत देखते हैं तो हमें यह जानना चाप्रहए दक इस दश्य जगत के पीछे एक प्रनयृंता है प्रबना प्रनयृंत्रण के दकसी का िकट होना सृंभव नहीं है भगवान ने जीवो को अपने अृंश रूप में स्वीकार दकया है जैसे दक सोने का एक कण भी सोना है समुद्र के जल की एक बूृंद भी खारी होती है इसी िकार हम जीव भी परम प्रनयृंता ईश्वर या भगवान श्रीकष्ण के अृंश होने के कारण सूक्ष्म मात्रा में परमेश्वर के सभी गुणों से युक्त होते हैं यद्यप्रप हमें भौप्रतक िकप्रत पर िभुत्व जमाने की िकप्रत होती है लेदकन हमें यह जानना चाप्रहए दक हम परम प्रनयृंत्रण नहीं है इसकी व्याख्या भगवत गीता में की गई है इन पाृंचों में से ईश्वर, जीव, िकप्रत, तथा काल शाश्वत है िकप्रत की अप्रभव्यप्रक्त अस्थाई हो सकती है परृं तु यह प्रमथ्या नहीं है भौप्रतक अप्रभव्यप्रक्त एक प्रनप्रश्चत अृंतराल में होती है कु छ काल तक िहरती है और दफर लुप्त हो जाती है िकप्रत के इस रूप में कायवशील है यह चि प्रनरृं तर चलता रहता है इसप्रलए िकप्रत शाश्वत है प्रजस िकार यह उस बादल के की तरह है जो आकाश में घूमता रहता है या वषाव ऋतु के आगमन के समान है जो अन्य का पोषण करती है जो ही वषाव ऋतु समाप्त होती है और बादल चले जाते हैं वैसे ही वषाव द्वारा पोप्रषत सारी फसल सूख जाती है भौप्रतक िकप्रत क्या है— भौप्रतक िकप्रत भगवान की अपरा िगप्रत है इससे परे एक िकप्रत और है प्रजसे जीव भूताम अथावत जीव कहते हैं जीव को परा िकप्रत (उत्कष्ट िकप्रत ) कहा गया है िकप्रत चाहे परा होया अपरा सदैव प्रनयृंत्रण में रहती है उस पर भगवान का िभुत्व रहता है क्योंदक भगवान यह प्रनयृंत्रक हैं दोनों ही परमेश्वर द्वारा अप्रत शाप्रसत एवृं प्रनयृंप्रत्रत हैं सारे जीव परमेश्वर का अृंश है परृं तु वे िकप्रत ही माने जाते हैं यह भौप्रतक िकप्रत अपरा िकप्रत परमेश्वर की प्रभन्न शप्रक्त है इस िकार जीव भी परमेश्वर की शप्रक्त है ककृं तु वह प्रवलग नहीं है अप्रपतु भगवान से प्रनत्य सृंबृंध है इस तरह भगवान जीव िकप्रत तथा काल यह सब परस्पर सृंबप्रृं धत है और सभी शाश्वत हैं परृं तु वस्तु कमव शाश्वत नहीं है भौप्रतक िकप्रत तीन गुणों से प्रनर्मवत है-- सतोगुण, रजो गुण, तथा तमोगुण इन गुणों के ऊपर प्रनत्य काल है और इन िकप्रत के गुणों तथा प्रनत्य काल के प्रनयृंत्रण वह सृंयोग से अनेक कायव कलाप होते रहते हैं प्रजन्हें कमव कहलाते हैं यह कायव कलाप अनादद काल से चले आ रहे हैं और हम सभी अपने कायव कलाप अथावत कमों के फल स्वरुप सुख या दुख भोग रहे हैं कमों के िभाव अत्यृंत पुरातन हो सकते हैं ककृं तु साथ ही हम अपने कमों के फल को बदल भी सकते हैं और यह पठरवतवन हमारे ज्ञान की पूणवता पर प्रनभवर करता है इसका वणवन भगवत गीता में हआ है प्रजसके द्वारा हम कमवफल से राहत िाप्त कर सकते हैं इसी िकार जीवन के ित्येक क्षेत्र में हम अपने कमव के फल का सुख भोगते या उसका कष्ट उिाते हैं या कमव कहलाता है ईश्वर अथावत परमेश्वर की प्रस्थप्रत परम चेतना स्वरूप है जीव भी ईश्वर के अृंश होने के कारण चेतन है जीव तथा भौप्रतक िकप्रत दोनों को िकप्रत बताया गया है अथावत परमेश्वर की शप्रक्त है ककृं तु इन दोनों में से के वल जीव चेतन है दूसरी िकप्रत चेतन नहीं है यही अृंतर है इसप्रलए जीव िकप्रत परा या उत्कष्ट कहलाती है क्योंदक जीव भगवान जैसी चेतना से युक्त है लेदकन भगवान की चेतना परम है इसका मतलब यह नहीं दक जीव भी परम चेतन है जीव प्रसद्ध अवस्थामें भी परम चेतन नहीं हो सकता अथावत जीव चेतन तो हो सकता है लेदकन पूणव या परम चेतन नहीं ईश्वर क्षेत्रज्ञ व चेतन है जैसा दक जीव भी है लेदकन जीव के वल अपने शरीर के िप्रत सचेत रहता है जबदक भगवान समस्त शरीरों के िप्रत सचेत हैं परमात्मा ित्येक जीव के ह्रदय में ईश्वर या प्रनयृंता के रूप में बात कर रहे हैं और जैसा जीव चाहता है वैसा करने के प्रलए जीव को प्रनदेप्रशत करते रहते हैं और उसे क्या प्रनदेश देते रहते हैं दक उसे कौन सा कमव करना चाप्रहए और कौन से नहीं यदद वह ऐसा करता है तो उसको प्रवगत पूवव कमों के सारे फल बदल जाते हैं फु ल स्वरूप कमव शाश्वत नहीं है सतोगुण में प्रस्थत रहते हए समझे दक उसे कौन से कमव करने चाप्रहए अथावत् परमात्मा के प्रनदेश अनुसार कायव करते रहें तो उसके प्रवगत कमों के सारे फल बदल जाते हैं परम चेतन ईश्वर एवृं जीव में समानताभगवान तथा जीव दोनों की चेतना है ददव्य है परृं तु भगवान की चेतना भौप्रतकता से िभाप्रवत नहीं होती है अथावत जब इस भौप्रतक जगत में अवतठरत होते हैं तो उनकी चेतना पर भौप्रतक िभाव नहीं पडता इसके प्रवपरीत जीव की चेतना भौप्रतक दप्रष्ट से कलुप्रषत होती है (तो हम बद्ध कहलाते हैं) प्रमथ्या चेतना का िाकट्य इसप्रलए होता है दक हम अपने आप को िकप्रत का िप्रतफल (उत्पाद) मान बैिते हैं यह प्रमथ्या अहृंकार कहलाता है वह अपनी प्रस्थप्रत स्वरुप को नहीं समझ पाता | हमें अपने कलुप्रषत चेतना को शुद्ध करना चाप्रहए शुद्ध होने पर हमारे सारे कमव ईश्वर की इच्छा अनुसार होंगे और इससे हम सुखी हो सकें गे अथावत हमें अपने कमों को शुद्ध करना चाप्रहए और शुद्ध कमव भप्रक्त कहलाते हैं भप्रक्त में दकए गए कमव सामान्य कमव ितीत होते हैं परृं तु वह कलुप्रषत नहीं हो भगवत गीता का िवचन देहात- आत्मा बुप्रद्ध मनुष्य को मुप्रक्त करने के को देहा तम बुप्रद्ध से मुक्त होना चाप्रहए अध्यात्मवादी के प्रलए िारृं प्रभक है जो मुक्त होना चाहता है उसे सवविथम यह जान लेना होगा यह दक नहीं है मुप्रक्त का अथव है भौप्रतक चेतना से स्वतृंत्रता अथावत इस भौप्रतक से मुक्त होना और शुद्ध चेतना में प्रस्थत होना | प्रलए ही हआ था व्यप्रक्त कमव (अथवा कायव) यही वह या शरीर नहीं है जगत की कलुप्रषत चेतना शुद्ध चेतना का अथव है की भगवान के आदेश अनुसार कमव करना शुद्ध चेतना का यही सार है | भगवान का अृंश होने के कारण हमें चेतना पहले से ही रहती है लेदकन हमें प्रनकष्ट गुणों द्वारा पाठरत होने की िवप्रि पाई जाती है इसके ककृं तु भगवान परमेश्वर होने के कारण वे कभी इस भौप्रतक चेतना से िभाप्रवत नहीं होते हैं यही परमेश्वर तथा शुद्र जीवों में अृंतर है चेतना क्या है--” “”मैं हृं”” यह चेतना है कलुप्रषत चेतना में “मैं हृं” का अथव है दक मैं सवे सवाव हृं मैं ही भोक्ता हृं ित्येक जीव यही सोचता है दक वह इस भौप्रतक जगत का स्वामी तथा सष्टा है| भौप्रतक चेतना के दो प्रवभाग है एक के अनुसार में ही सष्टा और मैं ही भोक्ता हृं लेदकन वास्तव में परमेश्वर ही श्रेष्ठा तथा भोक्ता दोनों है और परमेश्वर के अृंश होने के कारण जीव ना तो सष्टा है और ना ही भोक्ता वह मात्र सहयोगी है सजन तथा भोग दोनों के कें द्र बबृंदु परमेश्वर है और स्वामी तथा दास जैसा है प्रजस िकार शरीर के सारे अथावत पाव चलते हैं हाथ भोजन देते हैं दाृंत चबाते करने में लगे रहते हैं क्योंदक उदर ही िधान कारक है सारे जीव उनके सहयोगी हैं यह सृंबृंध अृंग पूरे शरीर के साथ सहयोग करते हैं हैं और शरीर के सारे अृंग उदर को सृंतुष्ट है जो शरीर रूपी सृंगिन का पोषण करता परम - पूणव से आशय प्रजसमें कोई भी प्रवजातीय तत्व ना हो और ना ही उसे दकसी की आवश्यकता हो वह जो सृंपूणव हो परम पूणव में परम प्रनयृंता, प्रनयृंप्रत्रत जीव, दश्य जगत, शाश्वत काल तथा कमव शाप्रमल है यह सब प्रमलकर परम पूणव का प्रनमावण करते हैं यही परम पूणव परम सत्य कहलाता है| यही परम पूणव कथा परम सत्य पूणव पुरुषोिम भगवान श्री कष्ण है प्रनर प्रवशेष ब्रह्मा भी पूणव परम पुरुष के अधीन है ब्रह्मा सूत्र में ब्रह्मा की प्रवशाद व्याख्या सूयव के दकरणों से की गई है प्रनर प्रवशेष ब्रह्मा पूणवब्रह्मा की अपूणव अनुभूप्रत है प्रनर प्रवशेष ब्रह्मा भगवान की िभा- मय दकरण समूह है और इसी िकार परमात्मा की धारणा भी है भगवान को सप्रच्चदानृंद प्रवग्रह कहा जाता है अथावत कष्ण सभी कारणों के कारण है वही आदद कारणों और सत- प्रच त तथा आनृंद के रूप है प्रनर प्रवशेष ब्रह्मा उनके सत अथावत शाश्वत स्वरूप की अनुभूप्रत है तथा परमात्मा सत- प्रच त (शाश्वत ज्ञान) की अनुभूप्रत है भरत भगवान कष्ण समस्त ददव्य स्वरूपों का अनुभूप्रत है सत प्रचत आनृंद के पूणव प्रवग्रह में है पूरा भगवान में अपार शप्रक्तयाृं हैं कष्ण अपनी प्रवप्रभन्न शप्रक्तयों द्वारा कायवशील जगत या भौप्रतक जगत प्रजसमें हम रह रहे हैं यह भी स्वयृं में पूणव है क्योंदक यह नश्वर ब्रह्माृंड प्रनर्मवत है वह भी अपेप्रक्षत सृंसाधनों से पूणव है इसमें ना तो और ना ही दकसी की आवश्यकता है इस सप्रष्ट का अपना प्रनजी प्रनयत काल है प्रनधावरण परमेश्वर की शप्रक्त द्वारा हआ है और जब यह काल पूणव हो जाता है पूणव व्यवस्था से क्षणभृंगुर सप्रष्ट का प्रवनाश हो जाता है है यह दश्य प्रजन 24 तत्व से कोई जाप्रत तत्व प्रजस का तो उस पूणव की भगवत गीता समस्त वैददक ज्ञान का सार है भगवान द्वारा कहे गए शब्द और पुरुष कहलाते हैं सृंसारी पुरुष के दोष हैं 1 यह त्रुठटयाृं अवश्य करता है 2 वह अप्रनवायव रूप से मोह- ग्रस्त होता है 3 उसमें अन्य को धोखा देने की िवप्रि होती है 4 वह अपूणव इृं दद्रयों के कारण सीप्रमत होता है इन 4 दोप्रषयों के कारण मनुष्य सववव्यापी ज्ञान की पूवव सूचना नहीं दे पाता | वैददक ज्ञान सबसे पहले िथम सप्रष्ट जीव ब्रह्मा के ह्रदय में िदान दकया गया, दफर ब्रह्मा ने इस ज्ञान को अपने पुत्रों तथा प्रशष्यों को उसी रूप में ददया प्रजस रूप में उन्हें भगवान से िाप्त हआ था भगवान इस ब्रह्माृंड की सारी वस्तुओं के एकमात्र स्वामी है वही सष्टा है तथा ब्रह्मा के सजन करता है भगवान को िा- प्रपतामह के रूप में सृंबोप्रधत दकया गया है , क्योंदक ब्रह्मा को प्रपतामह कह कर सृंबोप्रधत दकया जाता है और भगवान तो ब्रह्मा के सष्टा भी है अृंततः हमें उन्हीं वस्तुओं को स्वीकार करना चाप्रहए प्रजन्हें उसके पोषण के प्रलए भगवान ने प्रहस्से में दी है िकप्रत के गुणों के अनुसार तीन िकार के कमों का उल्लेख हे-- साप्रत्वक कमव, राजप्रसक कमव, तामप्रसक कमव | आहर के भी तीन भेद होते हैं - साप्रत्वक आहार, राजप्रसक आहार, तामप्रसक आहार | शुद्ध कमव करने पर हम अपने गृंतव्य को िाप्त कर सकें गे जो इस भौप्रतक आकाश से परे है यह गृंतव्य सनातन आकाश या प्रनत्य प्रचन्मय आकाश कहलाता है भौप्रतक सृंसार के प्रनयम के अनुसार ित्येक पदाथव क्षप्रणक हैं वह उत्पन्न होता है कु छ काल तक रहता है कु छ गोंड वस्तुएृं उत्पन्न करता है कमजोर होता है और अृंत में लुप्त हो जाता है यह भौप्रतक सृंसार का प्रनयम है ककृं तु इस क्षप्रणक सृंसार से परे एक अन्य सृंसार है अन्य िकप्रत है जो सनातन है हमारा भगवान के साथ घप्रनष्ठ सृंबृंध है और क्योंदक हम सभी गुणात्मक रूप से एक हैंसनातन धाम, सनातन भगवान तथा सनातन जीव गीता का सहारा अप्रभिाय हमारे सनातन धमव को जागत करना है क्योंदक हम अस्थाई रूप से प्रवप्रभन्न कमों में लगे रहते हैं ककृं तु यदद हम क्षप्रणक कमों को त्याग कर परमेश्वर द्वारा िस्ताप्रवत कमों को स्वीकार कर ले तो हमारे सारे कमव शुद्ध हो जाएृंगे यही हमारा शुद्ध जीवन कहलाता है परमेश्वर सावन का ददव्य धाम दोनों ही सनातन है और जीव भी सनातन है सनातन धाम में परमेश्वर तथा जीव की सृंयुक्त सृंगती ही मानव जीवन की साथवकता है भगवान जी वो पर अत्यृंत दयालु रहते हैं जो दक वे उनके आत्मज है वहीं उनके प्रपता है अतएव भगवान समस्त पप्रतत बुद्ध जीवो का उद्धार करने तथा उन्हें सनातन धाम वापस बुलाने के प्रलए ियास करते हैं अथावत वे नाना तारों के रूप में अवतठरत होते हैं या अपने सेवकों को पुत्रों पाषवद आचायों के रूप में उद्धार करने के प्रलए भेजते हैं सनातन धमव से आशय-(धमव का अथव है जो पदाथव प्रवशेष में सदैव रहता है ) सनातन धमव में दकसी साृंिदाप्रयक धमव पद्धप्रत का सूचक नहीं है यह तो परमेश्वर के साथ प्रनत्य जीवो के प्रनत्य कमव का सूचक है अथावत वह प्रजसका ना आदद है और ना ही अृंत उसे सनातन कहते हैं सनातन धमव उस कमव का सूचक है जो बदला नहीं जा सकता उदाहरण के तौर पर अप्रि से उष्मा प्रवलग नहीं की जा सकती, पानी से तरलता इसी िकार जीव से उसके प्रनत्य कमों को प्रवलग नहीं दकया जा सकता सनातन धमव जीव का शाश्वत अृंग है सनातन धमव के इप्रतहास का कोई आदद नहीं होता क्योंदक वह जीवो के साथ शाश्वत चलता रहता है क्योंदक जीव की ना तो जन्म होता है और ना ही मत्यु , वह शाश्वत तथा अप्रवनाशी है तथा शरीर नष्ट होने के बाद भी रहता है धमव का अथव है जो पदाथव प्रवशेष में सदैव रहता है प्रजस िकार ऊष्मा व िकाश के प्रबना अप्रि शब्द का कोई अथव नहीं है इसी िकार हम जीव को उस अप्रनवायव अृंग को ढू ृंढना चाप्रहए जो उसका प्रचर सहचर है यह चीज सचव और उसका शाश्वत गुण है और यह शाश्वत गुण ही उसका प्रनत्य धमव है जीव का स्वरूप या स्वाभाप्रवक प्रस्थप्रत भगवान की सेवा करना है एक जीव दूसरे जीव की सेवा कई रूपों में करता है जैसे माता पुत्र की सेवा करती है पप्रत-पत्नी की सेवा करती है कोई भी जीव अन्य जीव की सेवा करने से मुक्त नहीं है अथावत सेवा जीव की प्रचर - सहचरी है और सेवा करना उसका शाश्वत धमव है अथावत सेवा करना ही शाश्वत धमव है अतः भगवान के साथ हमारा सेवा का सृंबृंध है परमेश्वर परम भोक्ता है और हम उनके सेवक हैं प्रजस िकार शरीर का कोई भी भाग उ दर से सहयोग के प्रबना सुखी नहीं रह सकता उसी िकार हम भगवान की सेवा के प्रबना सुखी नहीं रह सकते प्रजनकी भौप्रतक बुप्रद्ध हर ली गई है वह देवताओं की शरण में जाते हैं वह अपने अपने स्वभाव के अनुसार पूजा की प्रवशेष प्रवप्रध प्रवधान ओं का पालन करते हैं तथा भगवान श्री कष्ण की पूजा ना करके देवताओं की पूजा करते हैं परमधाम की व्याख्या कष्ण का अथव है सवोच्च आनृंद, परमेश्वर समस्त आनृंद के आ गार है और यदद जीव उनकी सृंगप्रत करते हैं उनके साथ सहयोग करते हैं तो वह भी सुखी बन जाते हैं भगवान की तरह ही जीव चेतना से पूणव है और सुखी की खोज में रहते हैं अथावत लोगों को दकसी भी देवता की पूजा करने की आवश्यकता नहीं है उन्हें एकमात्र परमेश्वर की पूजा करनी चाप्रहए क्योंदक चरम लक्ष उनके भगवान के धाम को वापस जाना है प्रजसे हम परमधाम कहते हैं परमधाम अथावत इस शाश्वत आकाश में ना तो सूयव यह चृंद्रमा द्वारा नाही अप्रि यह प्रबजली द्वारा िकाप्रशत होता है क्योंदक वह परमेश्वर से प्रनकलने वाली ब्रह्मा ज्योप्रत द्वारा िकाप्रशत है , यह धाम गोलोक कहलाता है आध्याप्रत्मक आकाश की तेजोमय दकरणों अथावत ब्रह्म ज्योप्रत में अनप्रगनत लोक तैर रहे हैं यह ब्रह्मा ज्योप्रत परमधाम कष्ण लोक से अद्भुत होती है और आनृंदमय तथा प्रचन्मय लोक जो भौप्रतक नहीं है इसी ज्योप्रत में तैरते रहते हैं जोइस आध्याप्रत्मक आकाश तक पहृंच जाता आवश्यकता नहीं रहती इस भौप्रतक आकाश भी िाप्त कर लें, चृंद्रलोक का तो कहना ही पठरप्रस्थप्रतयाृं- जन्म मत्यु व्याप्रध तथा जरा चार प्रनयमों से मुक्त नहीं है है उसे इस भौप्रतक आकाश में लौटने की में यदद हम सवोच्च लोग अथावत ब्रह्मलोक को क्या तो वहाृं भी वही जीवन की होगी भौप्रतक ब्रह्माृंड का कोई भी लोग इन चृंद्र, सूय,व तथा उच्चतर लोक स्वगव लोक के कहलाते हैं, लोको की तीन प्रवप्रभन्न प्रस्थप्रतयाृं है-- उच्चतर, मध्य तथा प्रनम्न स्तर लोक पथ्वी मध्य लोक में आती है , भगवत गीता के अनुसार चृंद्रमा सूयव अन्य दकसी भी उच्चतर लोग को जाने वाला मनुष्य के वल उस लोग के प्रवशेष देवता की पूजा कर उस लोग तक पहृंच सकता है इस सरल सूत्र के द्वारा देव लोगों तक जाया जा सकता है परृं तु वहाृं भी हमें जन्म मत्यु जरा तथा व्याप्रध जैसी भौप्रतक असुप्रवधाओं से मुप्रक्त नहीं प्रमल सकती जो परम लोक, कष्ण लोक या आध्याप्रत्मक आकाश के दकसी भी अन्य लोग में पहृंचना चाहता है उसे वहाृं यह सारी सुप्रवधाएृं नहीं होती है आध्याप्रत्मक आकाश में प्रजतने भी लोक हैं उसमें गोलोक , वद ृं ावन नामक लोक सववश्रेष्ठ है जो भगवान श्री कष्ण का आदद धाम है इस िकार हमें भौप्रतक जगत को छोडकर आध्याप्रत्मक आकाश ने वास्तप्रवक जीवन का शुरूआत करना चाप्रहए भौप्रतक जगत का वणवन भौप्रतक जगत का वणवन उस वक्ष के रूप में हआ है प्रजसकी जडें ऊपर की ओर है और शाखाएृं नीचे की ओर है हमें ऐसे वक्ष का अनुभव है प्रजसकी जडें ऊपर की ओर है अथावत यदद कोई नदी या जलाशय के दकनारे खडा होकर जल में वक्षों का िप्रतबबृंब देखे तो उसे सारे वक्ष उल्टे ददखेंगे शाखाएृं नीचे की ओर और जडे ऊपर की ओर इसी िकार या भौप्रतक जगत भी आध्याप्रत्मक जगत का िप्रतबबृंब है या भौप्रतक जगत वास्तप्रवकता का िप्रतबबृंब मात्र है िप्रतबबृंब में कोई वास्तप्रवकता या सार नहीं होता लेदकन हम समझ लेते हैं दक वस्तु तथा वास्तप्रवकता यही है उदाहरण के प्रलए मरुस्थल में जल नहीं होता लेदकन मग मरीप्रचका बताती है दक जल जेसी वस्तु होती है अथावत भौप्रतक जगत में ना तो जल है ना तो सुख है लेदकन अध्यात्म जगत में वास्तप्रवक सुख रुपी असली जल है आध्याप्रत्मक जगत को िाप्त करने का उपाय सनातन राज्य अथावत धाम को ही िाप्त होता है जो प्रनमावन मोहा अथावत मोह ग्रस्त नहीं है हम दकसने दकसी िकार से उपाप्रधयों के पीछे ( अथावत कोई महाशय बनना चाहता है कोई धनवान बनना चाहता है ) यह सारी उपाप्रधयाृं शरीर से सृंबृंप्रधत होती है लेदकन हम शरीर नहीं है और इसकी अनुभूप्रत होना आध्याप्रत्मक अनुभूप्रत की िथम अवस्था है हम िकप्रत के तीनों गुणों से जुडे हए हैं हमें भगवान की भप्रक्त सेवा द्वारा इनसे छु टकारा पाना होगा जब तक हम िकप्रत पर िभुत्व जताने की िवप्रि को नहीं त्याग दें जब तक भगवान के धाम सनातन धाम को वापस जाने की कोई सृंभावना नहीं रहती यह शाश्वत अप्रवनाशी धाम को वही िाप्त होता है जो झूिे भौप्रतक भागों के आकषवणों द्वारा मोह- ग्रस्त नहीं होता जो भगवान की सेवा में प्रस्थत है रहता है ऐसा व्यप्रक्त से है जी परम धाम को िाप्त होता है अव्यक्त का अथव है अिकट अथावत हमारे समक्ष सारा भौप्रतक जगत तक िकट नहीं है क्योंदक हमारी इृं दद्रयाृं अपूणव है दक हम इस ब्रह्माृंड के सारे नक्षत्रों तक को भी नहीं देख पाते इस भौप्रतक जगत के परे आध्याप्रत्मक जगत है अव्यक्त या िकट यह िकट कहलाता है भगवत धाम तक कै से पहृंचा जा सकता है जो व्यप्रक्त मत्यु के समय कष्ण का बचृंतन करता है अथवा कष्ण के स्वरूप का स्मरण करता है वह कष्ण को िाप्त होता है तो वह प्रनप्रश्चत की भगवत धाम को िाप्त होता है मद भाव मन शब्द परम पुरुष के परम स्वभाव का सूचक है अथावत परम पुरुष सप्रच्चदानृंद प्रवग्रह है-- अथावत उनका स्वरूप शाश्वत, ज्ञान, तथा आनृंद से पूणव है बप्रल्क हमारा शरीर सप्रच्चदानृंद नहीं है अज्ञान से पूणव है हमें भौप्रतक जगत का भी पूणव ज्ञान नहीं है यह शाश्वत नहीं अप्रपतु नाशवान है आनृंद से ओतिोत ना होकर दुख से पूणव है इस सृंसार में प्रजतने भी दुखों का हम अनुभव करते हैं वे शरीर से उत्पन्न होते हैं ककृं तु जो व्यप्रक्त भगवान कष्ण का बचृंतन करते हए शरीर को त्याग ता है वह तुरृंत ही सप्रच्चदानृंद शरीर को िाप्त करता है शरीर से दूसरे शरीर दकस िकार का िाप्त होगा इसका प्रनणवय कमों के अनुसार होता है कमों के अनुसार ही हम उन्नप्रत या अवनप्रत करते हैं मन अप्रस्थर तथा चृंचल है प्रस्थर मन को प्रस्थर रखने के प्रलए मनुष्य को चाप्रहए दक दक जो पहले से अभ्यास कर रहा हृं उसके पास जाएृं तथा वह अपने मन को भगवान श्री कष्ण स्वरूप पर या उनके नाम उच्चारण पर कें दद्रत करने का अभ्यास करें मन चृंचल है इधर उधर जाता है परृं तु कष्ण की ध्वप्रन पर प्रस्थर हो जाता है वास्तव में हम अपने शरीर से नहीं बप्रल्क अपने मन तथा बुप्रद्ध से कमव करते हैं अतएव यदद मन तथा बुप्रद्ध सदैव परमेश्वर के प्रवचारों में मि रहे तो स्वाभाप्रवक है की इृं दद्रयाृं भी उनकी सेवा में लगी रहेंगी इस िकार इृं दद्रयों के कायव तो वहीं रहते हैं परृं तु चेतना बदल जाती है इस िकार मन को प्रनरृं तर भगवान के स्मरण करने में पता उनको भगवान के रूप में ध्यान करने पर शरीर छोडने पर आध्याप्रत्मक शरीर िाप्त होता है उनके पास पहृंचा जा सकता है इस अभ्यास को प्रजसमें हम अपने मन को भगवान के स्मरण करने में लगाते हैं वह भप्रक्त योग कहते हैं यह नो प्रवप्रधयाृं हैं प्रजसमें श्रमण सबसे सुगम है